Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 518
________________ विशवकालिकसून सभी लोग उसमें व्यस्त थे। बछड़े को पानी पिलाने या घासचारा डालने का किसी को ध्यान न रहा / दोपहर हो गई। वह भूख-प्यास के मारे रंभाने लगा / वणिक की युवती पुत्रवधू ने उसे सुना तो वह जैसे सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित थी, वैसे ही झटपट घास और पानी लेकर बछड़े के पास पहुंच गई / बछड़े की दृष्टि धास और पानी पर टिक गई / उसने कुलवधू के रंग, रूप, तथा वस्त्राभूषणों को साजसज्जा एवं शृगार की ओर न तो देखा और न ही उसका विचार करके आसक्त और व्यग्न हुप्रा / ठीक इसी प्रकार साधुवर्ग भी आर्तध्यानादि से रहित होकर शब्दादि विषयों में तथा मनोज्ञ दृश्य प्रादि देखने में चंचलचित्त न होकर एक मात्र एषणासमिति से युक्त होकर भिक्षाचरी एवं आहारगवेषणा में ही ध्यान रखे / -दशवै. अ. 51 जिनदासचूणि (10) अलेपकर आहार कब लेना, कब नहीं ? ("दिज्जमाणं न इज्छेज्जा, पच्छाकम्म जहिं भवे.) पिण्डनियुक्ति में एक रोचक संवाद द्वारा बताया गया है कि असंसृष्ट (अलेपकर) आहार कब लेना चाहिए, कब नहीं ? प्राचार्य ने शिष्य से कहा-मुनि को अलेपकर(असंसृष्ट) आहार लेना चाहिए, इससे पश्चात्कर्म के दोष की संभावना नहीं रहती और रसलोलुपता भी अनायास ही मिट जाती है।' यह सुनकर शिष्य ने कहा---'यदि पश्चात्कर्म दोष से बचने के लिए अलेपकर आहार लिया जाना ठीक हो तो, फिर पाहार ही न लिया जाए, जिससे किसी भी दोष का प्रसंग न आए।' आचार्य ने कहा--'वत्स ! सदा अनाहार रहने से चिरकाल तक होने वाले व्रत, तप, नियम और संयम की हानि होती है। इसलिए जीवनभर का उपवास करना ठीक नहीं / ' शिष्य ने पुनः तर्क किया-'यदि ऐसा न हो सके लगातार छह-छह महीने के उपवास किये जाएँ और पारणे में अलेपकर आहार लिया जाए तो क्या हानि है ?' आचार्य ने कहा-'यदि ऐसा करते हुए संयमयात्रा चला जा सके तो कोई आपत्ति नहीं है / परन्तु इस काल में शारीरिक बल सुदृढ़ नहीं है, इसलिए तप उतना ही करना चाहिए जिससे शरीर अपनी धर्मक्रिया (प्रतिलेखन-प्रतिक्रमणादि) ठीक तरह से कर सके, मन में दुनि पैदा न हो।' निष्कर्ष यह है--साधु का प्राहार मुख्यतया अलेपकर होना चाहिए, किन्तु जहाँ पश्चात्कर्म दोष की संभावना हो तो तप संयम-योग की दृष्टि से शरीर की उचित आवश्यकतानुसार लेपकर आहार भी लिया जा सकता है। -पिण्डनियुक्ति गा. 613-26 (11) मुधादायी दुर्लभ है (दुल्लहाओ मुहादाई ") एक परिव्राजक संन्यासी घूमता-घामता किसी भागवत के यहाँ पहुँचा और बातचीत के सिलसिले में बोला-मैं तुम्हारे यहां चातुर्मास करना चाहता हूँ। तुम्हारा स्थान मुझे बहुत पसन्द है। यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं मैं यहाँ चातुर्मास कर सकता हूँ / आशा है, चातुर्मासिक सेवा का लाभ तुम अवश्य लोगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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