Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 516
________________ 434] [दशवकालिकसूत्र छोड़ कर शुभसंकल्परूपी मिट्टी के लेप से उक्त छिद्र को तत्काल बन्द करके ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप मोक्षमार्ग पर चल पड़ना चाहिए। -- दशवै. अ. 2, गा. 4, जिनदास. चूणि (7) न वह मेरी, न मैं उसका (न सा महं, नो वि अहंपि तोसे) मनोज्ञ वस्तु पर से रागभाव दूर करने के लिए रामबाण उपाय बताते हुए उसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं एक वणिकपुत्र अपनी प्रियतमा को छोड़ कर प्रव्रजित हो गया। किन्तु यदा-कदा पूर्व संस्कारवश उस स्त्री की याद सताती थी। उसने गुरु महाराज से इस राग के निवारण का उपाय पूछा, तो उन्होंने एक मंत्र रटने के लिए दिया-"न वह मेरी, न मैं उसका / " बस, वह दिनरात इसी मंत्र का रटन करता रहता / एक दिन मोहोदयवश फिर विचार उठा--"वह तो मेरी ही है, मैं भी उसका हूँ, क्योंकि वह मुझ में अनुरक्त है / " इस अशुभ परिणाम के कारण वह अपने भण्डोपकरणों को ले उसी गाँव में पहुंचा, जहाँ उसकी गृहस्थाश्रम की पत्नी थी। उसका विचार था कि यदि पत्नी जीवित होगी तो दीक्षा छोड़ दूंगा, अन्यथा नहीं। पत्नी ने दूर से हो आते देख अपने भूतपूर्व पति को तथा उसके मनोभाव को जान लिया, परन्तु वह इसे नहीं पहचान सका / अतः उसने पूछा'अमुक की पत्नी मर गई या जीवित है ?' स्त्री ने सोचा--अगर इसने दीक्षा छोड़ दी और पुनः गृहवास स्वीकार कर लिया, तो हम दोनों ही संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे। अतः वह युक्तिपूर्वक बोली-'अब वह दूसरे की हो गई।' यह सुन उसकी चिन्तनधारा ने पुनः नया मोड़ लिया-वास्तव में गुरुदेव का बताया हुआ मंत्र ठीक था-वह मेरी नहीं है, न मैं उसका हूँ। उसका रागभाव दूर हो गया / वह पुनः संयम में स्थिर हो गया। वह विरक्तिभावपूर्वक बोला-'तो मैं वापस जाता हूँ।' __इसी प्रकार यदि कभी किसी मनोज्ञ वस्तु के प्रति कामना या वासना जागृत हो जाए तो इसी चिन्तन-मंत्र से रागभाव दूर करके संयम में आत्मा को सुप्रतिष्ठित करना चाहिए। –दशवै. अ. 2, गा. 4 हारि. वृत्ति, पत्र 64 8. महासती राजीमती के प्रखर उपदेश से संयम में पुनः प्रतिष्ठित रथनेमि ('तीसे सो वयणं सोच्चा संजयाए सुभासियं.') सोरठ देश के अन्तर्गत बारह योजन लम्बी और नौ योजन चौड़ी द्वारका नगरी में उस समय नौव वासदेव श्रीकृष्ण महाराज राज्य करते थे। उनके पिता-वसुदेव के बड़े भाई समुद्रविजय थे / इनको पटरानी शिवादेवी से भगवान् श्री अरिष्टनेमि का जन्म हुआ। __ यौवनवय में पदार्पण करने पर श्रीकृष्ण महाराज की प्रबल इच्छा से उनका विवाह उग्रसेन राजा की पुत्री राजीमती के साथ होना निश्चित हुआ। www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only

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