Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 514
________________ 432] दिशवकालिकसूत्र (4) 'कान्त' और 'प्रिय' का स्पष्टीकरण (जे य कंते पिए भोए०) इस विषय में गुरु-शिष्य का एक संवाद है शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव ! जो कान्त होते हैं, वे प्रिय होते ही हैं, फिर एक साथ यहाँ दो विशेषण क्यों?' गुरु--'आयुष्मन् ! (1) कोई पदार्थ कान्त होता है, पर प्रिय नहीं होता, (2) कोई प्रिय होता है, कान्त नहीं, (3) कोई पदार्थ प्रिय भी होता है और कान्त भी तथा (4) कोई पदार्थ न प्रिय होता है और न कान्त / ' शिष्य'गुरुवर ! ऐसा होने का कारण क्या है ?' ___ गुरु-शिष्य ! जो पदार्थ कान्त हो, वह प्रिय हो हो, ऐसा नियम नहीं है। किसी व्यक्ति को कान्त पदार्थ में प्रियबुद्धि होती है, किसी को अकान्त में भी प्रियबुद्धि उत्पन्न होती है। एक वस्तु एक व्यक्ति को कान्त लगती है, वही दूसरे को अकान्त लगती है / क्रोध, असहिष्णुता, अकृतज्ञता और मिथ्यात्वाभिनिवेश आदि कारणों से व्यक्ति किसी में विद्यमान गुणों को नहीं देख पाता, वह उसमें अविद्यमान दोषों को ढूढने लगता है / इस प्रकार कान्त में उसकी अकान्तबुद्धि हो जाती है। इसलिए 'कान्त' और 'प्रिय' भोग के ये दोनों विशेषण सार्थक हैं। कान्त का अर्थ रमणीय है और प्रिय का अर्थ है-इष्ट / अथवा कान्त का अर्थ है-सहज सुन्दर और प्रिय का अर्थ हैअभिप्रायकृत सुन्दर / ' -दशवे. अ. 2, गा. 3, जिनदास. चूणि (5) स्वेच्छा से तीन साररत्नों का त्यागी भी त्यागी है (साहोणे चयइ भोए०) इस विषय में एक शंका प्रस्तुत करके प्राचार्यश्री एक दृष्टान्त द्वारा उसका समाधान करते हैं शिष्य ने पूछा-'पूज्यवर ! यदि भरत और जम्बू जैसे स्वाधीन भोगों का त्याग करने वाले हो त्यागी हैं, तो क्या निर्धन दशा में प्रवजित होकर अहिंसा प्रादि महाव्रतों तथा दशविध श्रमणधर्म का सम्यक् पालन करने वाले त्यागी नहीं हैं ?' आचार्य- ऐसे श्रमणधर्म में दीक्षित व्यक्ति भी दीन-हीन नहीं हैं, वे भी तीन सारभूतरत्नों का स्वेच्छा से परित्याग कर दीक्षा लेते हैं, अत: वे भी त्यागी हैं ?' शिष्य –'गुरुदेव ! वे तीन सारभूतरत्न कौन-से हैं ?' प्राचार्य-'लोक में अग्नि, सचित्त जल और महिला, ये तीन साररत्न हैं / इनका स्वेच्छा से बिना किसी दबाव के परित्याग करके प्रजित होना अतीव दुष्कर है / इन तीनों साररत्नों के त्यागो को, त्यागी न समझना भयंकर भू Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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