________________ द्वितीय चूणिका : विविक्तवर्या] [419 [573] जहाँ (प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि जिस क्रिया में) भी तन से, वाणी से अथवा मन से (अपने आपको) दुष्प्रयुक्त (प्रमादपूर्वक-प्रवृत्त) देखे, वहीं (उसी क्रिया में) धीर (साधक स्वयं शीघ्र) संभल जाए, जैसे जातिमान् अश्व लगाम खींचते ही शीघ्र संभल जाता है / / 14 // [574] जिस जितेन्द्रिय, धृतिमान् सत्पुरुष के योग (मन-वचन-काया का योग) सदा इस प्रकार के रहते हैं, उसे लोक में प्रतिबुद्धजीवी कहते हैं। वह प्रतिबुद्धजीवी ही (वास्तव में) संयमी जीवनयापन करता है / / 15 // [575] समस्त इन्द्रियों को सुसमाहित करके आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए, (क्योंकि) अरक्षित आत्मा जातिपथ (जन्म-मरण-परम्परा) को प्राप्त होता है और सुरक्षित अात्मा सब दुःखों से मुक्त हो जाता है / / 16 // -ऐसा मैं कहता हूँ / विवेचन-आत्मानुशासन-चर्या के सत्र प्रस्तुत पांच गाथाओं (571 से 575 तक) में प्रात्मा का सूक्ष्मता से निरीक्षण करने तथा अपने मन-वचन-काया को प्रात्मा के अनुशासन में रखने और आत्मा की सब प्रकार से सदैव सतत रक्षा करने का निर्देश किया गया है / प्रात्मनिरीक्षण-आत्मार्थी मुनि शान्त चित्त से रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में अन्तर की गहराई में डूब कर एकान्त में, अकेले में, केवल अपनी आत्मा के साथ वार्तालाप करे--मैं कौन हूँ ? मैंने इस जीवन में अथवा अाज कौन-कौन-से शुभकार्य किये हैं ? तप, जप, सेवा, ध्यान, आदि कौन-कौन-से कार्य करने बाकी हैं ? तथा ऐसे कौन-कौन-से शुभकार्य हैं, जिनके करने की मुझ में शक्ति तो है, किन्तु मैं प्रमादवश उन्हें क्रियान्वित नहीं कर रहा हूँ ? इसके पश्चात् एकाग्न होकर फिर विचार करे कि मैं अपने गृहीत व्रतों, नियमोपनियमों तथा संयमाचार की मर्यादाओं से स्खलित होता हूँ, तब स्व-पर-पक्ष के लोग मुझे किस दृष्टि से देखते हैं ? तथा इस आत्मकल्याण के पक्ष से स्खलित होने पर क्या मैं अपने प्रापका अन्तनिरीक्षण करता हूँ? यह कार्य करना मेरे लिए उचित नहीं है, क्या मैं इस प्रकार से विचार करता हूँ ? और अपनी भूल या स्खलना को छोड़ देता हूँ ? अथवा कौन-सी ऐसी स्खलना या त्रुटि है, जिसे मैं छोड़ नहीं रहा हूँ? मेरी असमर्थता का क्या कारण है ? इस प्रकार से साधु-साध्वी प्रतिदिन नियमित रूप से अपना अन्तनिरीक्षण करें। ऐसा करने से प्रात्मशक्ति एवं स्वकर्तव्य का भान होता है, भ्रम का पर्दा दूर होता है, आलस्य एवं प्रमाद के स्थान पर पुरुषार्थ एवं प्रात्मजागरण बढ़ता है तथा पाप-मल दूर होने से निजात्मा की शुद्धि होती है, आत्मशक्ति बढ़ती है और अन्त में संसार की जन्ममरणपरम्परा से मुक्ति मिलती है। प्रात्मनिरीक्षण करने के पश्चात् मनुष्य अपनी भूल को सुधारने के लिए भी प्रयत्नशील होता है। अत्यन्त सावधानी से अपनी सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल का भी विचार करने से भविष्य में किसी प्रकार का दोष न लगाने या वैसी भूल न करने की सावधानी रखता है / अथवा 'प्रणागयं पडिबंधं न कुज्जा' का भावार्थ यह भी हो सकता है कि वह अपने दोषों (भूलों) को तत्काल सुधारने में लग जाए, भविष्य पर न टाले कि मैं इस भूल को कल, परसों या महीने बाद सुधार लूंगा। यही 'अनागत प्रतिबन्ध न करे' का प्राशय प्रतीत होता है। जब कभी कोई भूल हो, उसे उसी दिन या शीघ्र ही स्मरण करके उससे निवृत्त होने का प्रयत्न करे तथा भविष्य में वैसी भूल न करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org