Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 502
________________ [वशर्वकालिकसूत्र के लिए सावधान रहे / स्खलित होना बुरा है किन्तु इससे भी बुरा है स्खलित होकर फिर संभलने की चेष्टा न करना / इसीलिए अगली गाथा (573) में इसी प्रकार की प्रेरणा दी गई है कि मनवचन-काया से जिस किसी विषय में अपने-आप को कुमार्ग पर जाता हुआ देखे कि धैर्यवान् साधक तुरंत अपने-आप को पीछे हटा ले, शीघ्र ही स्वयं संभल जाए। जिस प्रकार जातिमान घोड़ा लगाम खींचते ही विपरीत मार्ग से पीछे हट जाता है, संभल कर सन्मार्ग पर चलने लगता है।" प्रतिबद्धजीवी : लक्षण और उपाय -गाथा. 575 में यह बताया गया है कि जो स्पर्श चों इन्द्रियों को अपने वश में करके जितेन्द्रिय बन गया है तथा हृदय में संयम के प्रति अदम्य धैर्य से युक्त है तथा जिसके मन, वचन और काययोग सदैव वश में रहते हैं, जो सतत अप्रमत्त रहकर अपने-ग्राप को त्रियोग में से किसी योग से स्खलित होता हुप्रा देखता है तो शीघ्र ही संभल जाता है और उस दोष से अपने को पृथक कर लेता है। यही प्रतिबुद्धजीवी का लक्षण है, जो भारण्डपक्षी की तरह सदैव अप्रमत्त रहता है तथा सदैव संयमी जीवन जीता है / आत्म-रक्षाचर्या-गाथा 575 में आत्मा की सतत रक्षा करने का निर्देश किया है। कुछ लोग देहरक्षा को मुख्य मानते हैं। उनका मानना है कि आत्मा की परवाह न करके भी शरीर की रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि शरीर प्रात्मसाधना करने का साधन है। किन्तु यहां इस मान्यता का खण्डन करके आत्मरक्षा को ही सर्वोपरि माना है। साधु-साध्वी को महाव्रत के ग्रहणकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त प्रतिक्षण प्रतिपल सावधानीपूर्वक सदैव प्रात्मरक्षा में लगे रहना चाहिये / प्रश्न हो सकता है-आत्मा तो कभी मरती नहीं, फिर उसकी रक्षा का विधान क्यों ? इसका उत्तर आचार्यों ने स्पष्टतः दिया है कि यहाँ प्रात्मा से ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा और वीर्यात्मा का अथवा संयमात्मा (संयमीजीवन) का ग्रहण अभीष्ट है। ज्ञानात्मा आदि की, अथवा संयमात्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। संयमात्मा की रक्षा क्यों करनी चाहिए? इसका उत्तर है-सुरक्षित की हुई पात्मा ही शारीरिक एवं मानसिक समस्त दुःखों से मुक्त होकर अनन्त मोक्षसुख को प्राप्त होती है। इसके विपरीत जो आत्मा अरक्षित रहती है, वह एकेन्द्रिय प्रादि नानाविध जातियों (जन्ममरण) के पथ की पथिक बनती है, जहाँ वह अनेकानेक असह्य दुःख भोगती है / आत्मरक्षा होती है-समस्त इन्द्रियों को सुसमाहित करने से अर्थात्-उनकी बहिर्मुखी (विषयोन्मुखी) वृत्ति को रोक कर, इन्द्रियों के विषय-विकारों से निवृत्त होकर आत्मा की परिचर्या में समाहित-एकाग्र करने से। // विविक्तचर्या : द्वितीय चूलिका समाप्त // [बारहवां : विविक्तचर्या नामक अध्ययन समाप्त] // दशवकालिक सूत्र सम्पूर्ण / 15. दशव. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) प्र. 1057 से 1060 के आधार पर / 16. वही, पृ. 1061-1062 17. (क) दसवेयालियं, (मुनि नथमलजी) पृ. (ख) दशवं. (प्रा. प्रात्मा.) पृ. 1063 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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