________________ [दशवकालिकसूत्र 553. धम्मामो भट्ठ सिरिओ ववेयं, जन्नग्गि विज्झायमिवऽस्पतेयं / होलंति णं दुविहियं कुसीला, दाढद्धियं घोर विसं व नागं // 12 // 554. इहेवऽधम्मो अयसो प्रकित्ती, दुम्नामधेज्जं च पिहज्जणम्मि। चुयस्स धम्मानो अहम्मसेविणो, संमिन्नवित्तस्स य हेटूओ गई॥१३॥ 555. भुजित्तु भोगाइं पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहुं / गई च गच्छे प्रणभिज्झियं दुहं खोही य से नो सुलभा पुणो पुणो // 14 // [550] यदि मैं भावितात्मा और बहुश्रुत होकर जिनोपदिष्ट श्रामण्य-पर्याय में रमण करता तो आज मैं गणी (प्राचार्य) होता // 9 // [551] (संयम में) रत महर्षियों के लिए मुनि-पर्याय देवलोक के समान (सुखद) (होता है) और जो संयम में रत नहीं होते, उनके लिए (यही मुनिपर्याय) महानरक के समान (दु:खद होता है / ) // 10 // [552] इसलिए मुनिपर्याय में रत रहने वालों का सुख देवों के समान उत्तम जान कर तथा मुनिपर्याय में रत नहीं रहने वालों का दुःख नरक के समान तीव्र जान कर पण्डितमुनि मुनिपर्याय में ही रमण करे / / 11 / / [553] जिसकी दाढ़े निकाल दी गई हों, उस घोर विषधर (सर्प) की साधारण अज्ञ जन भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही धर्म से भ्रष्ट, श्रामण्य (या तप) रूपी लक्ष्मी से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि के समान निस्तेज और दुविहित साधु की कुशील लोग भी निन्दा करते हैं / / 12 / / [554] धर्म (श्रमणधर्म) से च्युत, अधर्मसेवी और (गृहीत) चारित्र को भंग करने वाला इसी लोक में अधर्मी (कहलाता) है, उसका अपयश और अपकीर्ति होती है, साधारण लोगों में भी वह दुर्नाम (बदनाम) हो जाता है और अन्त में उसकी अधोगति होती है // 13 // [555] वह संयम-भ्रष्ट साधु आवेशपूर्ण चित्त से भोगों को भोग कर एवं तथाविध बहुत-से असंयम (कृत्यों) का सेवन करके दुःखपूर्ण अनिष्ट (नरकादि) गति में जाता है और उसे बार-बार (जन्म-मरण करने पर भी) बोधि सुलभ नहीं होती / / 14 / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org