________________ बिइया चलिया : विवित्तचारिया द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या [बारसमं अज्झयणं : बारहवां अध्ययन] चूलिका - प्रारम्भप्रतिज्ञा, रचयिता और श्रवणलाभ 560. चूलियं तु पवक्खामि, सुयं केवलिभासियं / जं सुणेत्तु सपुण्णाणं धम्मे उप्पज्जई मई / / 1 / / _ [560 ] मैं उस चूलिका को कहूँगा, जो श्रुत (श्रुतज्ञानरूप या सुनी हुई) है, केवली-भाषित है, जिसे सुन कर पुण्यशाली जीवों की धर्म में मति (श्रद्धा) उत्पन्न होती है / / 1 / / विवेचन-चूलिका का उद्गम-प्रस्तुत गाथा में प्रयुक्त चूलिका भावचूला का विशेषण माना गया है, जिसे 'तु' शब्द से ध्वनित किया गया है। अर्थात्-मैं भावचूलारूप चूलिका कहूँगा। इस चूलिका के उद्गम के सम्बन्ध में कुछ मतभेद हैं-(१) वृद्धपरम्परा के अनुसार—यह चूलिका प्रथम विहरमान तीर्थकर श्री सीमंधरस्वामी (केवली) द्वारा भाषित और एक साध्वी द्वारा श्रुत है / (2) चूणिद्वय के अनुसार---शास्त्र का गौरव बढ़ाने के लिए कहा गया है कि यह केवली भगवान् द्वारा कथित है। (3) टीकाकार के अनुसार-यह श्रुत-श्रुतज्ञानरूप है और केवलिभाषित है / (4) ऐतिहासिक कसौटी पर इसे कसा जाए तो यह संभावना अधिक पुष्ट होती है कि यह श्रुत-केवलीभाषित (श्रुतकेवली की रचना) है। 'सुयं केवलि-मासियं' इस पाठ को 'सुय-केवलि-भासियं' माना जाए तो यही अर्थ होता है / जो भी हो, 'तत्त्वं' केवलिगम्यम् / ' सपुण्णाणं-सुपुण्णाणं : दो रूप-(१)सपुण्यानाम्-पुण्यसहित जीवों की, (2) सुपुण्यानांउत्तम अर्थात् पुण्यानुबन्धी पुण्य वाले जीवों को।' सामान्यजनों से पृथक् चर्या के रूप में विविक्तचर्यानिर्देश-- 561. अणुसोय-पट्टिए+ बहुजणम्मि पडिसोयलद्धलक्खणं / पडिसोयमेव अप्पा, दायन्यो होउकामेणं // 2 // 1. (क) तु शब्द विशेषितां भावचूडाम् / श्रूयते इति श्रुतं तं पुण सुतनाणं / केवलियं भासितमिति सत्धगोरव मुप्पायणत्थं भगवता केवलिणा भणितं, न जेण केणति / -अ. चू., जि. चू., पृ. 368 (ख) दसवेयालियं (मुनि नथमल जी) पृ. 524 2. (क) 'सहपुण्णेण सपुण्णो ।'-अ. चू., (ख) सुपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनाम् / -हा. वृ., पृ. 279 + पाठान्तर-पट्ठिा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org