Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 496
________________ 414] [सवैकालिकसूत्र [564] अनिकेत-वास (अथवा अनियतवास), समुदान-चर्या, अज्ञातकुलों से भिक्षा-ग्रहण, एकान्त (विविक्त) स्थान में निवास, अल्प-उपधि और कलह-विवर्जन; यह विहारचर्या ऋषियों के लिए प्रशस्त है / / 5 // {565] आकीर्ण और अवमान नामक भोज का विवर्जन एवं प्रायः दृष्टस्थान से लाए हुए भक्त-पान का ग्रहण, (ऋषियों के लिए प्रशस्त है / ) भिक्षु संसृष्टकल्प (संसृष्ट हाथ और पात्र आदि) से ही भिक्षाचर्या करें। (दीयमान वस्तु से दाता के हाथ बतन आदि संसृष्ट हो तो) उसी ससृष्ट (हाथ और पात्र) से साधु भिक्षा लेने का यत्न करे 1 // 6 // _ [566] साधु मद्य और मांस का अभोजी हो, अमत्सरो हो, बार-बार विकृतियों (दूध, दही प्रादि विगइयों) को सेवन न करने वाला हो, बार-बार कायोत्सर्ग करने वाला और स्वाध्याय के लिए (विहित तपरूप) योगोद्वहन में प्रयत्नशील हो // 7 // [567] (साधु मासकल्पादि को समाप्ति पर उस स्थान से विहार करते समय गृहस्थ को ऐसी) प्रतिज्ञा न दिलाए कि यह शयन (संस्तारक-बिछौना या शयनीय पट्टा, चौको आदि), प्रासन, शय्या (उपाश्रय या स्थानक आदि वसति), निषद्या (स्वाध्यायभूमि) तथा भक्त-पान (आहार-पानी) आदि (जब मैं लौट कर आऊँ, तब मुझे ही देना / अतएव साधु) किसो ग्राम, नगर, कुल या देश पर, (यहाँ तक कि) किसी भी स्थान पर ममत्वभाव न करे / / 8 / / [568] मुनि गृहस्थ का यावत्य न करे (तथा गृहस्थ का) अभिवादन, वन्दन और पूजन भो न करे / मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे, जिससे (चारित्रादि गुणों को) हानि न हो / / 6 // [569] कदाचित् (अपने से) गुणों में अधिक अथवा गुणों में समान निपुण सहायक (साथी) साधु न मिले तो पापकर्मों को वजित करता हुमा, कामभोगों में अनासक्त रहकर अकेला हो विहार (विचरण) करे / / 10 / / [570] वर्षाकाल में चार मास और अन्य ऋतुनों में एक मास रहने का उत्कृष्ट प्रमाण है / (अत: जहाँ चातुर्मास-वर्षावास किया हो, अथवा मासका किया हो) वहाँ दूसरे वर्ष (चातुर्मास अथवा दूसरे मासकल्प) नहीं रहना चाहिए। सूत्र का अर्थ जिस प्रकार प्राज्ञा दे, भिक्षु उसो प्रकार सूत्र के मार्ग से चले // 11 // विवेचन-पाहार-विहार प्रादि को विवेकयुक्त चर्या के सूत्र-भिक्षाजीवी, अप्रतिवद्धविहारो, पंचमहावतो, अनासक्त एवं निर्ग्रन्थ साधु को पाहार, विहार, भिक्षा, निवास, व्यवहार, स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि से सम्बन्धित जितनो भी चर्याएँ हैं, वे पूर्णविवेक से युक्त एवं शास्त्रोक्त मर्यादा-पूर्वक हों, इस दृष्टि से इन सात गाथाओं (564 से 570 तक) में प्रशस्त विहारचर्या का रूप प्रस्तुत किया गया है / प्रशस्त विहारचर्या के विभिन्न सूत्रों को व्याख्या--(१) प्रणिएयवासो : दो रूप, तीन अर्थअनिकेतवास-निकेत का अर्थ घर है। अर्थात्-भिक्षु को किसो गृहस्थ के घर में नहीं रहना चाहिए / इसका फलितार्थ यह है कि उसे स्त्री-पशु-नपुंसक प्रादि से युक्त गृहस्थ के घर में न रह कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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