Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 481
________________ प्रथमा चूलिका : रतिवाक्या] [548] उत्प्रवजित (दीक्षा छोड़ कर गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट) व्यक्ति यौवनवय के व्यतीत हो जाने पर जब बूढ़ा हो जाता है, तब वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे कांटे को निगलने के पश्चात् मत्स्य / / 7 / / [जब संयम छोड़ा हुआ साधु दुष्ट कुटुम्ब की कुत्सित चिन्ताओं से प्रतिहत (माक्रान्त) होता है, तब वह वैसे ही परिताप करता है, जैसे (विषयलोलुपतावश) बन्धन में बद्ध हाथी।] [546] पुत्र और स्त्री से घिरा हा और मोह की परम्परा से व्याप्त वह दीक्षा छोड़ने के बाद (गृहवास में प्रविष्ट साधु) पंक में फंसे हुए हाथी के समान परिताप करता है / / 8 / / विवेचन- उत्प्राजित साधु की पश्चात्ताप-परम्परा-प्रस्तुत सात गाथाओं (543 से 546 तक) में संयम को छोड़ कर गृहवास में प्रविष्ट (उत्प्रवजित) साधु को कैसी-कैसी आधि-ज्याधिउपाधियों का सामना करना पड़ता है, उस दुःस्थिति में वह किस-किस प्रकार पश्चात्ताप करता है, यह विविध उपमाओं द्वारा प्रतिपादित किया गया है। उत्प्रजित के पश्चात्ताप करने के कारण यहाँ पाठ गाथाओं में दीक्षा छोड़ कर गृहवास में प्रवेश करने वाले साधु को होने वाले पश्चात्तापों के 8 कारण बताए हैं-(१) भविष्य को भूल जाता है-संयम को छोड़ने वाला व्यक्ति म्लेच्छों के समान चेष्टाएँ करने वाला अनार्य बन जाता है। वह शब्द-रूप आदि जिन विषयभोगों को पाने के लिए संयम छोड़ता है, उन वर्तमानकालीन क्षणस्थायी विषयसुखों में अतीव मूच्छित-मोहित होने पर उसे भविष्यत्काल का भान नहीं रहता। जिससे उसे भविष्य में भयंकर पश्चात्ताप करने का मौका आता है। (2) सर्वधर्म-परिभ्रष्ट हो जाने के कारण-जैसे देवाधिपति इन्द्र आयुष्य क्षय होने पर देवलोक से च्युत होकर मनुष्यलोक में आता है, तब वह अत्यधिक शोक करता है कि-'हाय ! मेरा वह अनुपम वैभव नष्ट हो गया। अब तो मनुष्यलोक में मुझे अनेक कष्ट भोगने पड़ेंगे।' इसी प्रकार उत्प्रजित साधु भी जब अपने क्षमा, शील, सन्तोष या अहिंसा-सत्यादि सब धर्मों से भ्रष्ट हो जाता है, तब वह लोगों की नजरों में गिर जाता है, वह लोगों का श्रद्धाभाजन एवं गौरवास्पद नहीं रहता, तब वह सिर धुन-धुन कर पछताता है कि हाय मैंने कितना अनर्थ कर डाला ! अब तो मैं किसी दीन-दुनिया का नहीं रहा / मैंने लोक-परलोक दोनों बिगाड़ लिये ! पश्चात्ताप का कारण यह भी है कि जब व्यक्ति साधुधर्म से स्खलित होता है, तब तो उसके मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होता है, जिससे संभलना कठिन होता है, किन्तु बाद में जब एक के बाद एक भयंकर दुःख आ पड़ते हैं और मोहनीय कर्म का उदय मन्दभाव में आ जाता है, तब वह इन्द्र के समान शोक, विलाप और पश्चात्ताप करने लगता है / / (3) अवन्दनीय हो जाने के कारण--जब साधु अपने संयम में स्थिरचित्त रहता है, उसका भलीभांति पालन करता है, उस समय तो वह राजा, मंत्री, करोड़पति श्रेष्ठी आदि द्वारा वन्दनीय होता है, किन्तु जब संयमधर्म को छोड़ कर भोगी गृहस्थ हो जाता है, तब सत्कार करने वाले उन्हीं 3. दशवकालिक (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) पृ. 1010 4. वही, पृ. 1011-1012 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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