Book Title: Agam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shayyambhavsuri, Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Pushpavati Mahasati
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 464
________________ 382] [वशवकालिकसूत्र 531] जो (साधु) इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और (वेताल आदि के) अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख-दुःख को समभावपूर्वक सहन कर लेता है; वही सुभिक्षु है // 11 / / 532] जो (साधक) श्मशान में प्रतिमा अंगीकार करके (वहाँ के) अतिभयोत्पादक दृश्यों (या भूतपिशाचादि के रूपों) को देख कर भयभीत नहीं होता तथा जो विविध गुणों (मूल-उत्तरगुणों) एवं तप में रत रहता है, जो शरीर की भी (ममत्वपूर्वक) आकांक्षा नहीं करता, वही (मुमुक्षु) भिक्षु होता है / / 12 // 533] जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सर्ग और (ममत्व) त्याग करता है (अथवा शरीर को संस्कारित एवं आभूषणादि से विभूषित नहीं करता), जो किसी के द्वारा प्राक्रोश किये जाने, (डंडे आदि से) पीटे जाने अथवा(शस्त्रादि से)क्षत-विक्षत किये जाने पर भी पृथ्वी के समान (सर्वसहसब कुछ सहने वाला) क्षमाशील रहता है, जो (किसी प्रकार का) निदान (नियाण) नहीं करता तथा (नृत्य, खेल-तमाशे आदि) कौतुक नहीं करता (या उनमें अभिरुचि नहीं रखता), वही सभिक्षु है / / 13 / / [534] जो (साधु अपने) शरीर से परीषहों को जीत कर जातिपथ (जन्म-मरणरूप संसारमार्ग) से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्ममरण (-रूप संसार) को महाभय जान कर श्रमणवृत्ति के योग्य तपश्चर्या में रत रहता है, वही सद्भिक्षु है / / 14 / / विवेचन-परीषहादि-विजेता साधुजीवन-प्रस्तुत चार गाथाओं (531 से 534 तक) में अाक्रोश आदि परीषह, भय, इन्द्रियविषय, देहासक्ति आदि पर विजय प्राप्त करने वाले प्रादर्श भिक्षु का जीवनचित्र प्रस्तुत किया गया है। 'गामकंटए' आदि पदों के विशेषार्थ-गामकंटए : दो अर्थ-(१) ग्राम-इन्द्रियों के समूह के लिए कांटों के समान चुभने वाले, अथवा (2) ग्राम का अर्थ इन्द्रिय-विषयसमूह भी है, अतः कांटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयसमूह को / जिस प्रकार शरीर में लगे हुए कांटे पीड़ित करते हैं, उसी प्रकार अनिष्ट शब्द आदि विषय श्रोत्रादि इन्द्रियों में प्रविष्ट होने पर उन्हें (इन्द्रियों को) दुःखदायी लगते हैं। अक्कोस-पहार-तज्जणाश्रो-प्राक्रोश-गाली देना, झिड़कना, आदि क्षुद्रवचन / प्रहारचाबुक आदि से पीटना और तर्जना-त्यौरी चढ़ाकर अंगुलि था बैंत आदि दिखा कर झिड़कना अथवा ताने मारना / भयभेरवसहसंपहासे-भयभैरवशब्द का अर्थ है अत्यन्त भय उत्पन्न करने वाले शब्द / संप्रहास का अर्थ है---प्रहास या अटहास सहित / अथवा वैताल आदि के भय-भैरव अतिदारुण भयोत्पादक) अट्टहास आदि शब्द / पडिमं पडिवज्जिया मसाणे-प्रतिमा शब्द यहाँ मासिकी आदि भिक्षुप्रतिमा, विशिष्ट अभिग्रह (प्रतिज्ञा) अथवा कायोत्सर्ग अर्थ में है। कायोत्सर्गमुद्रा में स्थित होकर श्मशान में ध्यान करने और विशिष्ट प्रतिमा ग्रहण करने की परम्परा जैन साधुओं में रही है। विविहगुण-तवोरए-इस पंक्ति का आशय है कि श्मशान में रह कर न डरना ही कोई खास बात नहीं है, किन्तु साथ ही उसे विविध गुणों और तपस्याओं में सतत रत भी रहना चाहिए। ताकि घोरातिघोर उपसर्गों के होने पर भी शरीर पर किसी प्रकार का ममत्वभाव न रह सके / इसलिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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