________________ दसवाँ अध्ययन : स-भिक्षु] प्रात्मश्लाघा, ये दोनों ही महादोष हैं। साधु-साध्वी को इन दोनों से बच कर मध्यमस्थ रहना चाहिए / 2. साधु को अपनी जाति, रूप, बल, श्रुत प्रादि का गर्व करना और दूसरों का उपहास करना अनुचित है। अज्जपयं : अज्जवयं-दो रूप-दो अर्थ-(१) प्रार्यपद--श्रेष्ठ या शुद्ध धर्म-पद (उपदेश) (2) प्रार्जवता---ऋजुभाव,-अहिंसादिलक्षण धर्म / वज्जिज्ज कुसीलालगं : कुशीललिंग का वर्जन करे--(१) आचारहीन स्वतीथिक अथवा परतीथिक साधुओं का वेष धारण न करे, (2) जिस आचरण से कुशील होने का अनुमान (लिंग) हो, उसका वर्जन करे / (3) कुशीलों द्वारा चेष्टित प्रारम्भादि का त्याग करे / ' न या वि हस्सकुहए : प्रासंगिक अर्थ–'कुहक" शब्द के अर्थ होते हैं-विस्मय उत्पन्न करने वाला, वञ्चक, ऐन्द्रजालिक आदि / यहाँ विस्मित करने के अर्थ में 'कुहक' शब्द प्रयुक्त है। 'हास्य' के साथ 'कुहक' शब्द होने से इस वाक्य का अर्थ होगा-हास्यपूर्ण कुतूहल न करने वाला या दूसरों को हंसाने के लिए कुतुहलपूर्ण चेष्टा न करने वाला / 22 / अशुचि और प्रशाश्वत देहवास-इस अध्ययन की अन्तिम गाथा में देहवास को अशुचि अर्थात्-अशुचि से पूर्ण या अशुचि से उत्पन्न और प्रशाश्वत अर्थात्-अनित्य, विनाशशील या क्षणभंगुर बताया है / शरीर की अशुचिता के सम्बन्ध में सुत्तनिपात में बताया गया है हड्डी और नस से युक्त, त्वचा और मांस का लेप चढ़े हुए तथा चर्म से ढके होने से यह शरीर जैसा है, वैसा दिखाई नहीं देता / इस शरीर के भीतर प्रांतें, उदर, यकृत, वस्ति, हृदय, फुफ्फुस (फेफड़ा), तिल्ली (वृक), नासामल, लार, पसीना, मेद, रक्त, लसिका, पित्त और चर्बी है। इस शरीर के नौ द्वारों से 20. (क) ग्राह-कि कारणं परो न वत्तवो? जहा--जो चेव अगणि गिण्डइ, सो चेव डज्झइ / एवं नाऊण पत्तेयं पत्तेयं पुण्णपावं, अत्ताणं ण समुकासइ, जहाऽहं सोभणो, एस असोभणो इत्यादि / जइ वि सो अप्पणो कम्मेसु अव्ववत्थिरो तहावि न वत्तवो, जहाऽयं कुत्थियसीलो त्ति, किं कारणं ? तत्थ अपत्तियमादि बहवे दोसा भवंति। -जिन, चणि, पृ. 347 (ख) परो णाम गिहत्थो लिंगी वा। -जिन, चूणि, पृ. 347 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 498 21. (क) प्रार्यपदम् ----शुद्धधर्मपदम् / हारि. वृत्ति, पत्र 269 (ख) प्रज्जवम्गहणेण अहिंसाइलक्खणस्स एयारिसस्स धम्मस्स गहणं कयं, तं पायरियं धम्मपदं गिहीणं साधण य पवेदेज्जा / --जिन. चणि, पृ. 348 (ग) कुसीलाणं पंडुरंगाईण लिंग,"...."अहवा जेण प्रायरिएण कुसीलो संभाविज्जति तं (कुसीललिंग न रक्खए।) —जिन. चुणि, पृ. 348 (घ) कुसीललिंग-प्रारम्भादि-कुसीलचेष्टितम् / -हारि. वृत्ति, पृ. 269 22. हस्समेव कुहगं, तं जस्स अत्थि सो हस्सकुहतो। तधा न भवे / हस्स-निमित्तं वा कुहग तधा करेति, जधा परस्स हस्समुप्पज्जति / एवं ण यावि हस्सकहए। -अगस्त्यचर्णि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org