________________ 394] [वशवकालिकसूत्र (4) मेरा यह (परीषहजनित) दुःख चिरकाल-स्थायी नहीं होगा। (5) (संयम छोड़ देने पर गृहवास में) नीच जनों का पुरस्कार-सत्कार (करना पड़ेगा / ) (6) (संयम का त्याग कर पुनः गृहस्थवास में जाने का अर्थ है-) वमन किये हुए (विषयभोगों) का वापिस पीना। (7) संयम को छोड़ कर गृहवास में जाने का अर्थ है-नीच गतियों में निवास को चला कर स्वीकार (करना)। (8) अहो ! गृहवास में रहते हुए गृहस्थों के लिए शुद्ध धर्म (का प्राचरण) निश्चय ही दुर्लभ है। (8) वहाँ अातंक (विसूचिका आदि घातक व्याधि) उसके (धर्महीन गृहस्थ के) वध (घात) का कारण होता है। (10) वहाँ (प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से उत्पन्न) संकल्प (-विकल्प) वध (विनाश) के लिए होता है। (11) गृहवास (सचमुच) क्लेश-युक्त है, (जबकि) मुनिपर्याय (साधु-अवस्था) क्लेशरहित है। (12) गृहवास बन्ध (कर्मबन्धजनक) है, (जबकि) श्रमणपर्याय मोक्ष (मोक्ष का स्रोत) है। (13) गृहवास सावद्य (पाप-युक्त) है, (जबकि) मुनिपर्याय अनवद्य (पाप-रहित) है / (14) गृहस्थों के कामभोग बहुजन-साधारण हैं / (15) प्रत्येक के पुण्य और पाप अपने-अपने हैं / (16) प्रोह ! मनुष्यों का जीवन कुश के अग्र भाग पर स्थित जलबिन्दु के समान चंचल है, इसलिए निश्चय ही अनित्य है / (17) अोह ! मैंने (इससे पूर्व) बहुत ही पापकर्म किये हैं / (18) ओह ! दुष्ट भावों से प्राचरित तथा दुष्पराक्रम से अजित पूर्वकृत पापकर्मों का फल भोग लेने पर ही मोक्ष होता है, बिना, भोगे मोक्ष नहीं होता, अथवा तप के द्वारा (उन पूर्व कर्मों का) क्षय करने पर ही मोक्ष होता है। यह अठारहवां पद है। विवेचन–संयम में अस्थिर चित्त के लिए अठारह प्रेरणा सूत्र-प्रस्तुत सूत्र में प्रवजित मुनि को किसी कारणवश संयम से विचलित हो जाने पर अस्थिरता-निवारणार्थ 18 प्रेरणासूत्र दिये गए हैं। 'उप्पन्नदुक्खेणं' प्रादि पदों के विशेषार्थ उप्पन्नदुक्खेणं-जिसे शीत, उष्ण आदि परीषह रूप शारीरिक दुःख या कामभोग, सत्कार-पुरस्कार आदि मानसिक दुःख उत्पन्न हो गए हैं। पोहाणप्पेहिणा-अवधावनोत्प्रेक्षिणा-अवधावन का अर्थ पीछे हटना या अतिक्रमण करना है। यहाँ अवधावन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org