________________ पढमा चूलिया : रइवक्का प्रथमा चूलिका : रतिवाक्या [एक्कारसमं अज्झयणं : ग्यारहवाँ अध्ययन] संयम में शिथिल साधक के लिए अठारह पालोचनीय स्थान 542. इह खलु भो ! पम्वइएणं उत्पन्न दुक्खेणं संजमे प्ररइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा प्रणोहाइएणं चेव ह्यरस्सि-गयंकुस-पोयपडागाभूयाई इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहियव्वाई भवंति / तं जहा 1. हं भो! दुस्समाए दुप्पजीवी / 2. लहुस्सगा इत्तिरिया गिहीणं कामभोगा। 3. भज्जो य साइबहुला मणुस्सा / 4. *इमं च मे दुक्खं न चिरकालोवट्ठाइ भविस्सइ / 5. प्रोमजणपुरक्कारे / 6. वंतस्स य पडियाइयणं + / 7. प्रहरगइवासोवसंपया / 8. दुल्लभे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहिवासमझे वसंताणं / 9. आयके से वहाय होइ / 10. संकप्पे से वहाय होइ। 11. सोवक्केसे गिहवासे, निरुवक्केसे परियाए। 12. बंधे गिहवासे, मोक्खे परियाए / 13. सावज्जे गिहवासे, प्रणवज्जे परियाए / 14. बहुसाहारणा गिहोणं कामभोगा / 15. पत्तेयं पुण्ण-पावं / 16. अणिच्चे खल भो ! मणुयाण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले। 17, बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं। 18. पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुवि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिताणं वेयइत्ता मोक्खो, नस्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता, अट्ठारसमं पयं भव // 1 // [542] हे मुमुक्षु साधको! इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन (जिनशासन) में जो प्रवजित हुना है, किन्तु कदाचित् दुःख उत्पन्न हो जाने से संयम में उसका चित्त अरतियुक्त हो गया। अत: वह संयम का परित्याग कर (गृहस्थाश्रम में चला) जाना चाहता है, किन्तु (अभी तक) संयम त्यागा नहीं है, उससे पूर्व इन (निम्नोक्त) अठारह स्थानों का सम्यक् प्रकार से आलोचन करना चाहिए। ये अठारह स्थान अश्व के लिए लगाम, हाथी के लिए अंकुश और पोत (जहाज) के लिए पताका के समान हैं / (अठारह स्थान) इस प्रकार हैं (1) प्रोह ! इस दुष्षमा (दुःखबहुल पंचम) बारे में लोग अत्यन्त कठिनाई से जीते (या जीविका चलाते) हैं। (2) गृहस्थों के कामभोग असार (तुच्छ) हैं एवं अल्पकालिक हैं / (3) (इस काल में) मनुष्य प्रायः कपटबहुल हैं / पाठान्तर--- * इमे प्र मे दुक्खे / + पडियायणं / // वेइत्ता मुक्णो, नथि अवेइत्ता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org