________________ 390] [दशवैकालिकसूत्र सदैव गन्दगो निकलती रहती है / यथा--आँख से आँख की और कान से कान की गन्दगी निकलती है / नाक से नासामल, मुख से पित्त और कफ तथा शरीर से पसीना और मैल निकलते हैं / इसके सिर की खोपड़ी गुदा से भरी है। अविद्या के कारण मूर्ख इसे शुभ मानता है / मृत्यु के बाद जब यह शरीर सूज कर नीला हो श्मशान में पड़ा रहता है तो बन्धु-बान्धव भी इसे छोड़ देते हैं। इसको प्रशाश्वतता के सम्बन्ध में ज्ञाताधर्मकथा-सूत्र में कहा गया है यह देह जल के फेन या बुलबुले की तरह अध्रव है, बिजली की चमक की तरह अशाश्वत है, दर्भ की नोक पर स्थित जलबिन्दु की तरह अनित्य है। देह जीवरूपी पक्षी का अस्थिरवास है / अन्ततः इसे छोड़े बिना कोई चारा नहीं / इसीलिए आदर्श भिक्षु देहवास को अशाश्वत और अशुचिपूर्ण मान कर छोड़ देता है / 23 दशमं स-भिक्खू अज्झयणं समत्तं / / 10 / / // इति श्री दशवकालिकसूत्रं समाप्तम् // 23. (क) दशवै. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 993 (ख) सुत्तनिपात अ. 11 (ग) ज्ञाताधर्मकथा-सूत्र, पृ. 59 (आगमप्रकाशनसमिति, ब्यावर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org