________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [351 कर्म (कारीगरी) से सम्बन्धित है और नैपुण्य शब्द चित्रकार, वादक, गायक आदि के कला-कौशल उस युग की अध्यापनपद्धति---गाथा संख्या 482 से उस युग की अध्यापनपद्धति का पता लगता है, जब अध्यापक अपने सुकोमल शरीर वाले शिक्षणार्थी को सांकल या रस्से से बांधते थे, चाबुक आदि से बेरहमी से मारते-पीटते थे और कठोर वचनों से डांटते-फटकारते और तरह-तरह से दारुण परिताप देते थे। वे अकारण ही ऐसा दण्ड नहीं देते थे, परन्तु जब शिक्षणार्थी शिल्प या कला सीखने में लापरवाही करता, बार-बार पढ़ाने या सिखाने पर भी भूल जाता, अपने उद्देश्य से स्खलित हो जाता, तभी शिक्षक का पुण्य-प्रकोप शिक्षणार्थी पर बरसता था और अध्यापक कलादि शिक्षण में उन्हें दृढ़ करते व सन्मार्ग पर लाते थे। शिक्षणार्थी भी शिक्षक का अपने पर महान् उपकार समझ कर उस दण्ड को सविनय स्वीकारता था / ' 'ललितेंदिया' आदि पदों के विशेषार्थ- ललितेंदिया-ललितेन्द्रिय-जिनकी इन्द्रियां सुख से लालित (लाड-प्यार में पली हुई) होती हैं, अथवा जिनकी इन्द्रियां रमणीय (ललित) या क्रीडाशील होती हैं, वे / नियच्छंति प्राप्त करते हैं / सक्कारेंति नमसंति-सत्कार करते हैं, नमस्कार करते हैं; गुरुजन के आने पर उठना, हाथ जोड़ना, आदि नमस्कार कहलाता है और उन्हें भोजन-वस्त्रादि से सम्मानित करना सत्कार कहलाता है / नमसति के बदले अगस्त्यचणि में 'समणेति' पाठ है, जिसका अर्थ है--स्तुतिवचन, चरणस्पर्श आदि करते हैं / तुट्ठा निद्देसवत्तिणो सन्तुष्ट होकर उनके निर्देशों (आदेशों का पालन करते हैं।१० गुरु-विनय करने की विधि 485. नीयं सेज्ज* गई ठाणं, नीयं च प्रासणाणि य / नीयं च पाए वंदेज्जा, नीयं कुज्जा य अंजलि / / 17 / / 486. संघट्टइत्ता कारण, तहा उवहिणामवि / 'खमेह अवराहं मे' यएज्ज 'न पुणो' ति य // 18 // 487. दुग्गो वा पओएणं, चोइओ वहई रहं / एवं दुब्बुद्धि किच्चाणं वुत्तो बुत्तो पकुव्वई // 19 // 8. शिल्पानि-कुम्भकारक्रियादीनि, नैपुण्यानि-पालेख्यादि-कला-लक्षणानि / हारि. वत्ति, पत्र 249 / 9. तत्थ निगलादीहि बंध पावेंति, वेत्तासयादिहि य वधं घोरं पावेंति, तो तेहिं बंधेहिं वधेहि य परितावा सुदारुणो भवइ ति; अहवा परितावो निरचोयण-तज्जियस्स जो मण-संतावो सो परितावो भण्णइ / - जिन. चूणि, 313-314 10. (क) लालितदिया वा सुहेहि, लकारस्स ह्रस्सादेसो। ललिताणि नाडगातिसुक्खसमुदिताणि इंदियाणि जेसि रायपुत्तप्पभीतीण ते ललितेंदिया। सक्कारो भोजणाच्छादणादि संपादण यो भवइ। थुतिबयण-पादोव फरिसं समयकक रणादीहि य समाणेति / -अगस्त्यंचूणि (ख) 'नमंसणा अब्भुट्ठागंजलिपगहादी / ' –जि. चूणि, पृ. 143 पाठान्तर-* सिज्ज / 'न पुण' त्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org