________________ [दशवकालिकसूत्र समाधि और विनयसमाधि आदि-समाधि का शब्दश: अर्थ होता है--समाधान, अर्थात् - मन का एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकार से स्थित हो जाना / समाधि का परमार्थ है---वास्तविक रूप से आत्मा का हित, सुख, अथवा स्वस्थता / अथवा विनयादि उक्त चारों प्रकार की क्रियाओं में अत्यधिक तल्लीनता हो जाना भी समाधि है / तात्पर्य यह है कि विनय, श्रत, तप और प्राचार में प्रवृत्त होने, तल्लीन होने से आत्मा का हित होता है, आत्मा को सुख-शान्ति प्राप्त होती है और आत्मा परभावों की अोर न जाकर स्वभाव में ही प्रायः स्थित हो जाता है। इसलिए इन्हें विनयसमाधि आदि कहा गया है। इनसे आत्मा में उत्कट समभाव उत्पन्न होता है। वस्तुतः ये चारों गुण आत्मा में समाहित--स्थापित हो जाते हैं। इसलिए इन्हें समाधिस्थान-समाधि के कारण कहते हैं। कठिन शब्दों के विशेषार्थ-इह-इस निर्ग्रन्थ-प्रवचन में, अथवा इस क्षेत्रलोक में / थेरेहि-- स्थविरों के द्वारा स्थविर शब्द से यहाँ गणधरों का ग्रहण किया गया है / तेण भगवया-उन भगवान् ने / यहाँ 'भगवान्' शब्द से शास्त्रकार का प्राशय प्रज्ञापक प्राचार्य प्रभवस्वामी से है, जो दशवैकालिकसूत्र के रचयिता आचार्य शय्यंभव के गुरु थे / अभिरामयंति-लीन करते हैं, दिव्यादि गुणों में स्थिर करते हैं, जुट जाते हैं।' चारों समाधिस्थानों में तल्लीन होने योग्य कौन?–गाथा 510 में समाधिस्थानों के पात्रों के लिए दो मापदण्ड निर्धारित किये हैं-(१) जितेन्द्रिय हों और (2) पण्डित-(जिनकी बुद्धि सद्असद् विवेकशालिनी) हों, केवल शास्त्रों के पढ़ लेने मात्र से ही कोई पण्डित नहीं हो जाता और न वंशपरम्परा से बपौती में यह पद मिलता है। विनयसमाधि के चार प्रकार 511. चउविहा खलु विणयसमाही भवइ / तं जहा-अणुसासिज्जतो सुस्सूसइ 1, सम्म संपडिवज्जइ 2, वेयमाराहइ 3, न य भवह प्रत्तसंपग्गहिए / चउत्थं पयं भवइ 4 ॥शा 512. भवइ य एत्थ सिलोगो पेहेइ हियाणुसासणं 1 सुस्सूसई 2 तं च पुणो अहिट्ठए 3 / न य माणमएण मज्जइ 4 विणयसमाही आययट्ठिए 1 // 6 // [511] विनयसमाधि चार प्रकार की होती है / जैसे 1. (क) इहक्षेत्रे---प्रवचने वा। (ख) समाधानं समाधि:-परमार्थतः प्रात्मनो हितं सुखं स्वास्थ्य। -हारि. वत्ति, पत्र 256 (ग) “जं विणयसमारोवणं, विणयेण वा जं गणाण समाधाणं, एस विणयसमाधी भवतीति।" -प्रगस्त्यचणि (घ) दशवे. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पृ. 935 (ङ) थेरगहणेण गणहराणं गहणं कयं / ---जिन. चूणि, पृ. 325 (च) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 465 2. दसवेयालियसुतं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 69 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org