________________ 372] [वशवकालिकसूत्र [516] परम-विशुद्ध (निर्मलचित्त) और (संयम में) अपने को भलीभांति सुसमाहित रखने वाला जो साधु है, वह चारों समाधियों को जान कर अपने लिए विपुल हितकर, सुखावह एवं कल्याण (क्षेम)-कर मोक्षपद (स्थान) को प्राप्त कर लेता है / / 13 / / [520] (पूर्वोक्त गुणसम्पन्न साधु) जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है, नरक आदि सब पर्यायों (अवस्थाओं) को सर्वथा त्याग देता है / (ऐसा साधक) या तो शाश्वत (अजर-अमर) सिद्ध (मुक्त) हो जाता है, अथवा (यदि कुछ कर्म शेष रह जाएँ तो वह अल्पकर्मवाला महद्धिक देव होता है / / 14 / / विवेचन-चतुर्विध विनय-समाधि की फलश्रुति–प्रस्तुत दो गाथाओं (516-520) में विनय-समाधि के अनन्तर और परम्पर फल का निरूपण किया गया है / समाधि की फल-प्राप्ति के योग्य-जो सुविशुद्ध हो, सुसमाहितात्मा हो तथा चारों समाधियों का सुविज्ञ हो, वही चतुर्विध समाधि के फल को पाने के योग्य है। फलश्रुति-उसे निम्नोक्त फल प्राप्त होते हैं--(१) वह विपुल हितकर, सुखकर और क्षेमकर मोक्षपद प्राप्त करता है, (2) जन्म-मरण से मुक्त हो जाता है, (3) नरकादि अवस्थानों से सर्वथा बच जाता है, (4) शाश्वतसिद्ध होता है, अथवा (5) अल्पकर्म वाला महद्धिक देव बनता है।" 'पयं' आदि शब्दों के अर्थ-पयं-पद अर्थात् मोक्षपद / जाइ-मरणाप्रो-जन्म और मरण से, अथवा जन्म-मरणरूप संसार से / इत्थं यं-इत्थं का अर्थ है-इस प्रकार प्राप्त हुआ, जो इस प्रकार स्थित हो, जिसके लिए 'यह ऐसा है, इस तरह का व्यपदेश किया जाए उसे इत्थस्थ कहा जाता है। नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, ये 4 गतियाँ, शरीर, वर्ण, संस्थान इत्यादि सब जीवों के व्यपदेश के हेतु हैं। जो इत्थंस्थ को त्याग देता है अर्थात् अमुक प्रकार के विकारी रूप को त्याग देता है। अल्परए : दो रूप : दो अर्थ-(१) अल्परजा-थोड़े कर्म वाला और (2) अल्परत—अल्प-पासक्त / / // नवम अध्ययन : विनय-समाधि-चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 9-4 // // नवम अध्ययन सम्पूर्ण // 9 // 11. दशवै. (प्रा. प्रात्मा.) पृ. 952-53 12. (क) अगस्त्यचूर्णि (ख) जि. चू., पृ. 329 (ग) हारि. वृत्ति, पृ. 258 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org