________________ 378] [दशवकालिक सूत्र 527. सम्मदिट्ठी सया अमूढे, अस्थि ह नाणे तवे संजमे य। तवसा धुणई पुराण-पावगं, मण-वय-काय-सुसंवुडे जे, स भिक्खू // 7 // 528. तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लभित्ता। होही प्र8ो सुए परे या, तं न निहे, न निहावए जे, स भिक्खू // 8 // 529. तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमं साइमं लमित्ता। छंदिय साहम्मियाण भुजे, भोच्चा सज्शायरए य जे, स भिक्खू // 9 // 530. न य धुग्गहियं कहं कहेज्जा, न य कुप्पे, निहुइंदिए पसंते / संयम-धुव-जोगजुत्तै उवसंते, अविहेडए जे, स भिक्खू // 10 // [526] जो चार कषायों (क्रोध, मान, माया और लोभ) का वमन (परित्याग) करता है, जो तीर्थंकरों (बुद्धों) के प्रवचनों में सदा ध्र वयोगी रहता है, जो अधन (अकिंचन) है तथा सोने और चाँदो से स्वयं मुक्त है, जो गृहस्थों का योग (अधिक संसर्ग या व्यापार) नहीं करता, वही सद्भिक्षु है // 6 // [527] जिसकी दृष्टि सम्यक है, जो सदा अमूढ है, जो ज्ञान, तप और संयम में प्रास्थावान् है तथा जो तपस्या से पुराने (पूर्वकृत) पाप कर्मों को प्रकम्पित (नष्ट) करता है और जो मन-वचनकाया से सुसंवृत है, वही सच्चा भिक्षु है / / 7 / / [528] पूर्वोक्त एषणाविधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर—'यह कल या परसों के लिए काम आएगा,' इस विचार से जो उस पाहार को न तो (संचित) करता है और न कराता है, वह भिक्षु है / / 8 / / [529] पूर्वोक्त प्रकार से विविध प्रशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को पाकर जो अपने सार्मिक साधुनों को निमन्त्रित करके खाता है तथा भोजन करके स्वाध्याय में रत रहता है, वही सच्चा भिक्षु है // 6 // [530] जो कलह उत्पन्न करने वाली कथा (वार्ता) नहीं करता और न कोप करता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org