________________ दसवां अध्ययन : स-भिक्ष] [379 जिसकी इन्द्रियां निभत (अनुत्तेजित) रहती हैं, जो प्रशान्त रहता है। जो संयम में ध्र वयोगी है, जो उपशान्त रहता है और जो उचित कार्य का अनादर नहीं करता, वही भिक्षु है / / 10 / / विवेचन सच्चे भिक्ष का जीवन प्रस्तुत 5 गाथाओं (526 से 530 तक) में बताया गया है कि सच्चे भिक्षु का निर्ग्रन्थ धर्म की दृष्टि से जीवन कैसा होता है ? उसकी चर्या कैसी होती है ? वह स्वधर्म का आचरण किस प्रकार करता है ? ध्र वयोगी : विभिन्न परिभाषाएँ--(१) जो प्रतिक्षण, लव और मुहूर्त प्रबुद्धता-जागृति आदि गुणों से युक्त हो, (2) प्रतिलेखन आदि संयमचर्या में नियमित रूप से संलग्न हो तथा (3) मन, वचन, काया से की जाने वाली प्रवत्तियों में सदा उपयोग-(सावधानी) पूर्वक जुटा रहता हो, (4) तीर्थंकर-प्रवचन (द्वादशांगी रूप) में निश्चल योग वाला हो और (5) श्रुत (शास्त्र-ज्ञान) में सदा उपयोगयुक्त रहता हो, वह ध्र वयोगी है। अगस्त्यचूणि के अनुसार (1) जो तीर्थंकर-वचनानुसार मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता हो, (2) प्रतिलेखनादि जो भी अवश्यक रणोय कार्य हों, उन्हें सदैव समय पर उपयोगपूर्वक करने वाला हो, वह ध्र वयोगी है / कहा भी है-- जिन शासन में, तीर्थकरवचनरूप द्वादशांगी गणिपिटक में जो निश्चल योग-युक्त हो तथा पांच प्रकार के स्वाध्याय में रत हो, वह ध्र वयोगी है।" 'गिहिजोग' आदि पदों का विशेषार्थ-गिहिजोग--गृहस्थयोग–अर्थात्-(१) गृहस्थों से ममत्वयुक्त संसर्ग या सम्बन्ध रखना या (2) गृहस्थों का क्रय-विक्रय, पचन-पाचन प्रादि व्यापार स्वयं करना / सम्मादिट्टी-सम्यग्दृष्टि—जिनप्ररूपित जीव, अजीव आदि तत्त्वों (सद्भावों) पर जिसकी सम्यक् श्रद्धा है / अमूढे : प्रमूढ---(१) मिथ्यादृष्टियों (मिथ्या-विश्वासरत) का वैभवादि देख कर मूढता न लाने वाला, (2) देव, गुरु और धर्म, इस तत्त्वत्रयी में जिसे पक्का विश्वास हो, अथवा (3) देवमूढता, गुरुमूढता और शास्त्रमूढता से जो दूर हो / 'अस्थि हु नाणे०' इत्यादि : दो व्याख्याएँ-(१) जिनशासन में सम्यक् ज्ञान है, उस ज्ञान का फल तप और संयम है और संयम का भी फल मोक्ष है / ये ज्ञान, तप और संयम जिनप्रवचन में ही सम्पूर्ण हैं, अन्य कुप्रावचनों में नहीं / (2) हेय, ज्ञेय और उपादेय पदार्थों का विज्ञापक ज्ञान है, कर्ममल को शुद्ध करने के लिए जल के समान बाह्याभ्यन्तर भेद वाला तप है और नवीन कर्मों के बन्ध का निरोध करने वाला संयम है, इस प्रकार जो अमूढभाव से मानता है। अर्थात ज्ञान, तप और संयम के अस्तित्व में दृढ़ आस्था रखता है। मण-वय-काय ससंबडे-मन-वचन-काय से सुसंवत--मन से सुसंवत—अकुशल मन का निरोध और कुशल मन की उदीरणा करने वाला, वचन से सुसंवृत-अप्रशस्त वचन का निरोध और प्रशस्त वचनों की उदीरणा करने या मौन रखने वाला; काय से सुसंवृत-शास्त्रोक्त नियमानुसार शयनासन-प्रादान-निक्षेपादि कायचेष्टाएँ करने वाला, शेष प्रकरणीय क्रियाएँ न करने वाला। 7. (क) जिन. चूणि, पृ. 349 8. (क) गिहिजोगो-जो तेसिं वायारो पयण-पयावणं तं। ---प्र. चूणि. (ख) गहियोग-मूच्र्छया गृहस्थसम्बन्धम् / —हारि. वृत्ति., पत्र 266 . (ग) सम्भावं सद्दहणालक्खणा सम्म दिट्ठी जस्म सो सम्मदिदी / परतिस्थिविभवादीहिं अमूढे।-अगस्त्यचणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org