________________ 280] [दशवकालिकसूत्र स्कन्धों से निक नो हुई शाखाएँ, अथवा (2) प्रशाखाएँ जिनमें फूट गई हो / पायखज्जाइं-पाकखाद्यपका कर खाने के योग्य / वेलोचित-जो फल पक्का हो जाने पर डाल पर लगा नहीं रह सकता, तत्काल तोडने योग्य फल / टालाइं—जिस फल में अभी तक गुठली न पडो हो, प्रबद्धास्थिक कोमल फल 'टाल' कहलाते हैं / वेहिमाइं-धोकरणयोग्य-जिनमें गुठली न पड़ो हो तथा दो विभाग करने योग्य / असंथडा-फल धारण करने में अपर्याप्त-असमर्थ / बहुनिवट्टिया-बहुनिर्वतित-अधिकांश निष्पन्न फल वाले / ओसहोमो-प्रोषधियाँ-चावल, गेहूँ प्रादि धान्य या एक फसल वाला पौधा / नोलियाओ-हरी या अपक्व / छवीइय-छवि-स्वचा (छाल) या फली वाली। पिहुखज्जा : दो अर्थ-(१) अग्नि में सेक कर खाने योग्य, अथवा२२ (2) पृथुक (चिड़वा) बना कर खाने योग्य / 'रूढा' प्रादि शब्दों को व्याख्या-बोज अंकुरित होने से लेकर पुनः बोज बनने तक की सात अवस्थाएँ वनस्पति की हैं। उन्हों का सूत्रगाथा 366 में उल्लेख है। (1) रूढ-बीज बोने के बाद जब वह प्रादुर्भूत होता है, तो दोनों बोजपत्र एक दूसरे से अलग-अलग हो जाते हैं, भ्रूणाग्र को बाहर निकलने का मार्ग मिलता है, इस अवस्था को 'रूढ़ कहते हैं। (2) सम्भूत-पृथ्वी पर आने पर बोजपत्र का हरा हो जाना और बोजांकुर को प्रथम पत्तो बन जाना। (3) स्थिर-भ्रू णमूल का नीचे की ओर बढ़ कर जड़ के रूप में विस्तृत हो जाना। (4) उत्सृत-भ्रू णाग्र स्तम्भ के रूप में आगे बढ़ना / (5) गभित-आरोह पूर्ण हो जाना, किन्तु भुट्टा या सिट्टा न निकलने को अवस्था। (6) प्रसूत-भुट्टा या सिट्टा निकलना पोर (7) ससार-दाने पड़ जाना / अगस्त्यचूणि के अनुसार रूढ को अंकुरित, बहुसम्भूत को सुफलित, उपघातमुक्त बोजांकुर की उत्पादक शक्ति को स्थिर, सुसंवर्धित स्तम्भ को उत्सत, भुट्टा न निकलने को मित, भुट्टा निकलने पर प्रसूत और दाने पड़ने को ससार कहा जाता है। साधु को फलों के विषय में प्रारम्भ-समारम्भ-जनक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि साधु के मुख से इस फल को इस प्रकार खाना चाहिए, इत्यादि सावध वचन सुन कर गृहस्थ उसके प्रारम्भ में प्रवृत्त हो सकता है, जिससे अनेक दोष सम्भव हैं / 24 22. (क) हा. वृ., पत्र 258 / ---अग. चूणि, पृ. 171 (ख) अग. चूणि, पृ. 181 (ग) हारि. वृत्ति, पत्र 218 (घ) अ. चूणि, पृ. 171 23. (क) विरूढा---अंकुरिता। बहुसम्भूता-सुफलिता। जोग्गादि उवधातातीताप्रो थिरा। सुसंवड़िता-उस्महा। अणिव्विसूणामो-गब्भिणामो। णिविमूतामो–पसूतानो सव्वोवघात-रहितासो सुणिफण्णासो ससाराम्रो। --अ. चू., पृ. 173 (ख) रूढाः-प्रादुर्भूतः, 'बहुसम्भूता' निष्पन्नप्रायाः ....."उत्सृता-उपघातेभ्यो निर्गता इति वा / तथा गर्भिता:-अनिर्गतशीर्षकाः, प्रसूताः-निर्गतशीर्षकाः, ससारा:-संजात-तन्दुलादिसाराः / -हारि. वृत्ति.. पत्र 219 24. (क) दसवेयालियं (मूनि नथमलजी) प्र. (ख) दशव, पत्राकार, (प्राचार्यश्री आत्मारामजी) पृ. 685, 683 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org