________________ 296] [दशवकालिकसूत्र 394. सीओदगं न सेवेज्जा सिला बुट्ट हिमाणि य / उसिणोदगं तत्तफासुयं पडिगाहेज्ज संजए // 6 // 395. उदओल्लं अप्पणो कार्य नेव पुछे न संलिहे / / समुप्पेह तहाभूयं नो णं संघट्टए मुणी // 7 // 396. इंगालं अगणि अच्चि अलायं वा सजोइयं / / न उजेज्जा न घट्टज्जा, नो णं निव्वावए मुणी // 8 // 397. तालियंटेण पत्तेण साहावियणेण वा।। न बोएज्ज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पोग्गलं // 9 // 398. तरणरुक्खं न छिदेज्जा फलं मूलं व कस्सइ / प्रामगं विविहं बीयं मणसा वि न पत्थए // 10 // 399. गहणेसु न चिट्ठज्जा बीएसु हरिएसु वा। उदगम्मि तहा निच्चं उत्तिंग-पणगेसु वा // 11 // 400. तसे पाणे न हिंसेज्जा वाया अदुव कम्मुणा / उवरओ सव्वभूएसु पासेज्ज विविहं जगं // 12 // [360] पृथ्वी (-काय), अप्काय, अग्निकाय, वायुकाय तथा तृण, वृक्ष और बीज (रूप वनस्पतिकाय) [अथवा बीजपर्यन्त तृण, वृक्ष] तथा त्रस प्राणी; ये जीव हैं, ऐसा महर्षि (महावीर) ने कहा है // 2 // [361] (साधु या साध्वी को) उन (पूर्वोक्त स्थावर-त्रस जीवों) के प्रति मन, वचन और काया से सदा अहिंसामय व्यापारपूर्वक ही रहना चाहिए / इस प्रकार (अहिंसकवृत्ति से रहने वाला) संयत (संयमी) होता है // 3 // ___ [392] सुसमाहित संयमी (साधु या साध्वी) तीन करण तीन योग से (सचित्त) पृथ्वी, भित्ति (दरार), (सचित्त) शिला अथवा मिट्टी का, ढेले का स्वयं भेदन न करे और न उसे कुरेदे, (दूसरों से भेदन न कराए, न ही कुरेदाए तथा अन्य कोई इनका भेदन करता हो या कुरेदता हो तो उसका अनुमोदन मन-वचन-काया से न करे) / / 4 / / [393] (साधु या साध्वी) शुद्ध (प्रशस्त्रपरिणत-सचित्त) पृथ्वी और सचित्त रज से संसृष्ट (भरे हुए) प्रासन पर न बैठे। (यदि बैठना हो तो) जिसकी वह भूमि हो, उससे आज्ञा (अवग्रह) मांग कर तथा उसका प्रमार्जन करके (उस प्रचित्त भूमि पर) बैठे / / 5 / / [394] संयमी (साधु या साध्वी) शीत (सचित्त) उदक (जल), अोले, वर्षा के जल और हिम (बर्फ) का सेवन न करे / (आवश्यकता पड़ने पर अच्छी तरह) तपा हुआ (तप्त) गर्म जल तथा प्रासुक (वर्णादिपरिणत धोवन) जल ही ग्रहण करे (और सेवन करे) // 6 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org