________________ 312] [दशवकालिकसूत्र श्रद्धा, स्वास्थ्य आदि देख कर, जरा-व्याधि-इन्द्रियक्षोणता को परिस्थिति आए उससे पहले-पहले ही धर्माचरण में पराक्रम कर लेने का निर्देश किया है। गुरु की दी हई शिक्षा कार्यरूप में परिणत करे-गा. 421 में गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनयव्यवहार आवश्यक बताया है। बहुत से साधक प्राचार्य या गुरु की शिक्षा केवल वचन से स्वीकार करते हैं, उसे पाचरण में नहीं लाते / परन्तु गुरु या प्राचार्य द्वारा दी गई शिक्षा क्रियान्वित न हो तो उसका यथार्थ लाभ नहीं होता / इसीलिए यहाँ स्पष्ट कहा गया है३२ "तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उववायए।" भोगों से निवृत्त होकर मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करे--गा. 422 का फलितार्थ यही है कि साधक के सामने भोग और मोक्ष दोनों हैं / भोग अस्थिर हैं, जबकि मोक्ष स्थिर और यह निश्चित है कि जीवन अनित्य है, कब समाप्त हो जाएगा, कुछ भी पता नहीं। इस स्वल्पतर आयुष्य वाले जीवन को भोगों से सर्वथा मोड़ कर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय मोक्ष. मार्ग में पुरुषार्थ करना चाहिए, क्योंकि मनुष्य जीवन बार-बार नहीं मिलता। अत: फिर ऐसा अवसर और यह जन्म मिलना दुर्लभ है 133 बल आदि देख कर आत्मा को धर्माचरणपुरुषार्थ में लगाए—मनोबल, तनबल, श्रद्धा, स्वास्थ्य तथा क्षेत्र, काल आदि का सम्यक् विचार करने के पश्चात् यदि ये सब ठीक स्थिति में हों तो धर्माचरण में इन्हें लगाने में क्षण भर भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। क्योंकि ये सब साधन या निमित्त बार-बार नहीं मिलते, जब साधक को ये अनायास ही प्राप्त हुए हैं तो अपनी भक्ति और क्षमता का उपयोग धर्माचरण में करना चाहिए / 34 फिर धर्माचरण होना कठिन है-शास्त्रकार 423 वी गाथा में चेतावनी के स्वर में कहते हैं कि शरीर धर्म का सर्वोत्तम साधन है, वह स्वस्थ हो तभी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध धर्म का पालन हो सकता है। बचपन, बुढापा, बीमारी या इन्द्रियक्षीणता में उसका पालन होना दुष्कर है, अत: युवावस्था एवं स्वस्थता में ही धर्माचरण कर लेना चाहिए। यदि अनुकूल परिस्थिति में धर्माचरण न किया तो फिर मोक्षमार्ग पर चलना दुष्कर होगा। अत: धर्माचरण में इसी क्षण से पुरुषार्थ करो।३५ कषाय से हानि और इनके त्याग की प्रेरणा 424. कोहं माणं च मायं च लोभं च पाववड्ढणं / वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हियमप्पणो / / 36 // 425. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो / माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सम्वविणासणो / / 37 / / 31. दशवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) 32. दशवै. (संतबालजी), पृ. 109 33. भोगेभ्यो-बन्धकहेतुभ्यः। -हारि. वृत्ति, पत्र 233 34. (क) वही, प. 783 (ख) दशव (संत.), पृ. 109 35. दशवै. (ग्रा. प्रात्मा.), प. 785 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org