________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [311 गृहन का अर्थ है-पूरी बात न कहना, थोड़ी कहना और थोड़ी छिपाना, तथा निह्नव का अर्थ हैसर्वथा अपलाप--अस्वीकार करना / सुई-शुचि-अकलुषितमति, पवित्रात्मा, वियडभाव-विकटभावजिसके भाव (विचार) प्रकट-स्पष्ट हों, वह / शुचि (पवित्र) वही होता है, जो सदा स्पष्ट रहता है / वीर्याचार की आराधना के विविध पहलू 421. अमोहं वयणं कुज्जा आयरियस्स महप्पणो। तं परिगिज्झ वायाए कम्मुणा उबवायए // 33 // 422. अधुवं जीवियं नच्चा, सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियट्टिज्ज भोगेसु, आउं परिमियमप्पणो // 34 // [बलं थामं च पेहाए सद्धामारोग्गमप्पणो / खेत्तं कालं च विण्णाय तहऽप्पाणं निज़ुजए* // ] 423. जरा जाव न पीलेई, वाही जाव न वडई / जाबिदिया न हायंति, ताव धम्म समायरे // 35 // [421] मुनि महान् आत्मा प्राचार्य के वचन को सफल (अमोघ) करे / वह उनके (आचार्य के) कथन को ('एवमस्तु', इस प्रकार) वाणी से भलीभाँति ग्रहण करके कर्म से (कार्य द्वारा) सम्पन्न करे // 33 // [422] (मुमुक्षु साधक) अपने जीवन को अध्र व (अस्थिर या अनित्य) और आयुष्य को परिमित जान तथा सिद्धिमार्ग का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करके भोगों से निवृत्त हो जाए / // 34 // [अपने बल (मनोबल या इन्द्रियों की शक्ति), शारीरिक शक्ति (पराक्रम), श्रद्धा और प्रारोग्य (स्वा (स्वास्थ्य) को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर, अपनी आत्मा को (उचित रूप से) धर्मकार्य में नियोजित करे // ] [423] जब तक वृद्धावस्था (जरा) पीड़ित न करे, जब तक व्याधि न बढ़े और जब तक इन्द्रियाँ क्षीण न हों, तब तक धर्म का सम्यक् आचरण कर लो / / 36 / / विवेचन–प्रात्मा का शुद्ध पराक्रम ----प्रस्तुत 4 गाथाओं (421-423 तक) में आत्मा को पराक्रम करने के तीन साधनों (मन, वचन, काय) से अपने अनित्य जीवन को भोगों से मोड़कर 30. (क) प्रणायारं प्रकरणीयं वत्थु / –अ. च., पृ. 193 (ख) गूहन-किंचित् कथनम्, निह्नव एकान्तापलापः / (ग) गृहणं किंचि कहणं भण्णइ / णिण्हवो णाम पुच्छिमो संतो सव्वहा अवलवइ / सो चेव सुई, जो सया बियडभावो। ---जि. चु., पृ. 285 * यह गाथा कुछ प्रतियों में मिलती है, कुछ में नहीं मिलती। -सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org