________________ 334] दशवकालिकसूत्र का उत्तम साधन होने से धर्म है। धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप है और ये तीनों ही मिलकर मोक्षमार्ग हैं। इसलिए मोक्षरूप लक्ष्य को पाने के लिए विनय को सर्वांगीणरूप से जानना और आचरित करना आवश्यक है। ज्ञातासूत्र के अनुसार सुदर्शन ने थावच्चापुत्र अनगार से पूछा-आपके धर्म का मूल क्या है ? थावच्चापुत्र ने कहा-हमारे धर्म का मूल विनय है। वह दो प्रकार का है—अगारविनय और अनगारविनय / पांच अणुव्रत सात शिक्षाव्रत और 11 उपासक प्रतिमाएँ अगारविनय और पांच महावत, 18 पापस्थान-विरति, रात्रिभोजन-विरमण, दशविध-प्रत्याख्यान और 12 भिक्षुप्रतिमाएँ, यह अनगार-विनय है। इसके अतिरिक्त देव, गुरु. धर्म, शास्त्र और प्राचारवान् के प्रति मोक्ष-लक्ष्यप्राप्ति के उद्देश्य से नम्रता का प्रयोग भी लोकोत्तर विनय के अन्तर्गत है। * इसी दष्टि से औपपातिकसत्र में लोकोत्तर विनय के 7 प्रकार बताए गए हैं-ज्ञान, दर्शन चारित्र, मन, वाणी और काया तथा सातवां उपचार विनय है / केवल महाव्रती गुरु के प्रति आदर-सत्कार, सम्मान-बहुमान, सेवा-शुश्रूषा करना उनके आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, प्रासन देना, भक्ति करना, अनुशासन में रहना, आज्ञापालन करना, उनके प्रति मन, वचन, काया से नम्र, अनुद्धत रहना अादि ही विनय नहीं है। परन्तु प्रस्तुत अध्ययन तथा उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम विनयश्रुत' अध्ययन के परिशीलन से स्पष्ट है कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र के प्रति अनुद्धत रहना, इनकी तथा ज्ञानवान्, दर्शनवान् चारित्रवान् की पाशातना न करना भी विनय है।+ लोकोत्तर विनय के इन सब प्रकारों में ज्ञानादि पंच प्राचार की प्रधानता है / प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं, इन चारों में प्रतिपादित विषय को देखते हए इनके शीर्षक इस प्रकार हो सकते हैं-(१) गुरु की आशातना के दुष्परिणाम, गुरु की महिमा और विनयभक्ति का निर्देश, (2) विनय के द्वारा प्राप्त उपलब्धि एवं विनयविधि तथा अविनीतसुविनीत का लक्षण, (3) प्राचारप्रधान विनयधर्म का पाराधक ही लोकपूज्य, (4) विनयसमाधि की परिपूर्णता / प्रथम उद्देशक में सर्वप्रथम 11 गाथाओं में विविध उपमाओं के द्वारा प्राचार्य या गुरु (चाहे वह अल्पवयस्क या अल्पप्रज्ञ हो) की अविनय, अवज्ञा, अवहेलना या अाशातना करने के दुष्परिणामों का निरूपण किया गया है / तत्पश्चात् यह बताया गया है कि गुरु के प्रति विनय, सत्कार, नमस्कार, हाथ जोड़ना, सेवा-शुश्रूषा करना तथा मन-वचन-काया से आदर आदि क्यों करना चाहिए ? अन्त में गुरुविनय के उत्कृष्ट फल-अनुत्तर ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति, 5. ज्ञातासूत्र 5 अ. 6. औपपातिक सूत्र 7. उत्त. 30 / 32 + विणग्रो वि तवो, तवो वि धम्मो। -प्रश्न. 3, सं. द्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org