________________ नवम अध्ययन : विनय-समाधि] [341 [464] कल्याणभागी (साधु) के लिए लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य ; ये विशोधि(कम-मल-निवारण करने) के स्थान हैं। अतः जो गुरु मुझे (इस सद्गुणों की) निरन्तर शिक्षा देते हैं, उनकी मैं सतत पूजा करू, (शिष्य सदा यह भाव रखे।) / / 13 / / विवेचन–प्रत्येक परिस्थिति में विनय करना अनिवार्य प्रस्तुत तीन गाथाओं (462 से 464 तक) में ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचे हुए शिष्य को भी गुरुदेव की विनय-भक्ति, सेवा, पूजा, सिर से नमन, वाणी, काया और मन से सत्कार और हाथ जोड़कर वन्दन आदि करने का युक्तिपूर्वक विधान किया गया है / विनय को अनिवार्यता-यहाँ तीन गाथाओं में तीन उक्तियों से विनय की अनिवार्यता प्रतिपादित को गई है-(१) जैसे अग्निहोत्री बनने के लिए ब्राह्मण विविध वेदमंत्रों और घृत-मधुप्रक्षेपादि आहुतियों से अभिषिक्त एवं अपने घर में स्थापित अग्नि की नमस्कार प्रादि से पूजाभक्ति करता है, उसी प्रकार अनन्तज्ञानसम्पन्न (केवलज्ञानी) हो जाने पर भी गुरु की सविनय उपासना करे, (2) जिन से प्रात्मगुणविकासकर धर्मसिद्धान्त-वाक्यों का कल्याणकारी शिक्षण लिया है, उन परम-उपकारी गुरु की हर प्रकार से विनय करना चाहिए / (3) विशुद्धिस्थानरूप लज्जा, दया आदि सद्गुणों का जिन गुरुओं ने मुझे बारबार शिक्षण देकर कल्याणभागी बनाया है, उनकी सतत पूजा-भक्ति करनी उचित है। (ऐसा विचार करना चाहिए)। 'आहियग्गो' प्रादि पदों के विशेषार्थ :-आहियग्गी-साहिताग्नि-जो ब्राह्मण अग्निहोत्री लिए अपने घर में अग्नि सतत प्रज्वलित रखता है, उसकी पूजा विविध मंत्रों और पाहतियों से करता है, वह आहिताग्नि कहलाता है / मंतपय-मंत्रपदों से--.'अग्नये स्वाहा' इत्यादि मंत्रवाक्यों से। आहुई—आहुतियों से—मंत्र पढ़कर अग्नि में घृत, मधु आदि को डालना पाहुति है / धम्मपयाई-धर्मबोधरूप फल वाले सिद्धान्तवाक्य धर्मपद हैं। विनयभक्ति के प्रकार-प्रथम विनयभक्ति-नमस्कार से होती है, यह नमन सिर झुका कर किया जाता है / अपना अहं दूर करने के लिए सर्वप्रथम अंग नमस्कार है / नमस्कार जिसको किया जाता है, उसकी गुरुता का और अपनी लघुता का द्योतक है। जब मनुष्य स्वयं को लघु समझेगा, तभी वह गुरुता की ओर बढ़ेगा। दूसरी विनयभक्ति-करयुगल जोड़ना है। दोनों हाथ जोड़ कर गुरु को वन्दना की जाती है / 'सिरसा पंजलीओ' इन दोनों पदों से चर्णिकार 'पंचांगवन्दन'-विधि सूचित करते हैं। सिरसा पंजलीयो, का फलितार्थ है--वे पंचांगवन्दन करते हैं / यथा—दोनों घुटनों को भूमि पर टिका कर, दोनों हाथों को भूमि पर रख कर, उन पर पांचवाँ अंग सिर रखकर नमाना पंचांगवन्दन है / तीसरी विनयभक्ति काया द्वारा सेवा-शुश्रूषा करने से होती है। यथा-गुरु के पधारने पर 7. दशव. (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.), पृ. 852 (क) प्राहिताम्निः कृतावसथा दिहिह्मण: / पाहुतयो-घतप्रक्षेपादिलक्षणाः / मंत्रपदानि–'अग्नये स्वाहेत्यव मादीनि / ' धर्मपदानि-धर्मफलानि सिद्धान्तफलानि / -हारि. वत्ति, पत्र 245 (ख) नाणाविहेण घयादिणा मंतं उच्चारेऊण पायं दलयइ। -जिन, चणि, पृ. 306 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org