________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [309 [416] साधु से जानते हुए या अनजाने (कोई) अधार्मिक कृत्य हो जाए तो तुरन्त उससे अपने आपको रोक ले तथा दूसरी बार वह कार्य न करे / / 31 / / [420] अनाचार का सेवन करके उसे गुरु के समक्ष न छिपाए (गुरु के समक्ष प्रकट करे) और न ही सर्वथा अपलाप (अस्वीकार) करे; किन्तु (प्रायश्चित्त लेकर) सदा पवित्र (शुद्ध) प्रकट भाव धारण करने वाला (स्पष्ट), असंसक्त (अलिप्त या अनासक्त) एवं जितेन्द्रिय रहे // 32 // विवेचन--आत्मा को क्रोधादि विचारों से दूर रखे—प्रस्तुत चार गाथाओं (417 से 420 तक) में क्रोध, लोभ, गर्व, मद, आस्रव, माया, अपमान, निह्नवता आदि विकारों से आत्मा को दूर रख कर आत्मा को शुद्ध, निष्कपट, पवित्र, स्पष्ट, असंसक्त और जितेन्द्रिय रखने का निर्देश किया गया है। 'अतितिणे' प्रादि पदों का भावार्थ-अतितिणे-अतितिण-तेन्दु आदि की लकड़ी को आग में डालने पर जैसे वह 'तिणतिण' शब्द करती है, वैसे हो मनचाहा काय, पदार्थ या पाहार न मिलने पर व्यक्ति बकवास (प्रलाप) करता है, उसे भी 'तितिण' (तनतनाहट) कहते हैं। जो ऐसा प्रलाप नहीं करता, उसे अतितिण' कहते हैं। अप्पभासी-कार्य के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही बोलने वाला 125 मियासणे : दो रूप : दो अर्थ-(१) मिताशनः-मितभोजी, और (2) मितासन:-भिक्षादि के समय में थोड़े समय तक बैठने वाला। थोवं लधुन खिसए-आहारादि थोड़ा पाकर आहारादि को या दाता की निन्दा न करे / बाहिरं न परिभवे-बाह्य अर्थात् अपने से भिन्न व्यक्ति का परिभव (तिरस्कार या अनादर) न करे। प्रत्ताणं न समक्कसे-अपनी उत्कृष्टता की डींग न होके / सुयलाभे....""बुद्धिए--श्रुत आदि का मद न करे, श्रुतादि के मद की तरह मैं कुलसम्पन्न हूँ, बलसम्पन्न हूँ या रूपसम्पन्न हूँ, ऐसा कुल, बल और रूप का मद भी न करे। श्रुतमद यथा--मैं बहुश्रुत हूँ, मेरे समान कौन विद्वान या बहुश्रुत है। लाभमद, यथा-मुझे जितना और जैसा आहार प्राप्त होता है, वैसा किसे होता है ? अथवा लब्धिमद-लब्धि में मेरे समान कौन है ? जाति, तप और बुद्धि के मद के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए / 26 निन्दा : प्रात्मशुद्धि में भयंकर बाधक-साधु को आहार थोड़ा या नीरस मिले या न मिले तो वह क्षेत्र की, दाता की या पदार्थ की निन्दा न करे, न ही व्यर्थ बकवास करे, वह चंचलता को छोड़ कर स्थिरचित्त रहे, अत्यन्त आवश्यक हो वहाँ थोड़ा-सा बोले / प्रमाण से अधिक आहार न करे / साधु को अपने उदर पर काबू रखना चाहिए। मितभोजी की स्वाध्याय, ध्यान आदि चर्याएँ ठीक हो सकती हैं। बहुभोजी स्वल्प पाहार मिलने पर गृहस्थ के आगे यद्वा-तद्वा बकता है, निन्दा 25. (क) अगस्त्यचूणि, पृ. 192 (ख) हारि. वृत्ति, पत्र 233 26. (क) जिन. चूणि, 284 (ख) हारि. वृत्ति, पृ. 233 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org