________________ अष्टम अध्ययन : आवार-प्रणधि] क्योंकि ऐसा करने से पापकर्म का बन्ध तो होता ही है, महापुरुषों की अविनय-पाशातना भी होती है, उनके हृदय को आघात पहुँचता है। उपहासात्मक वचन कदाचित् सत्य भी हो, तो भी परपीड़ाकारक होने से साधु के लिए बजित है / 56 निमित्त, नक्षत्रादि काल से सम्बन्धित हैं, योग, भैषज मन्त्रादि द्रव्य से तथा शेष भावों से सम्बन्धित हैं। कदाचित् किसी साधु को निमित्त-नक्षत्रादि का ज्ञान भी हो, तो भी घटी, पल की गणना ठीक न होने से, दृष्टि विपर्यासवश या किसी स्वार्थवश, छद्मस्थ होने के कारण कोई फलादेश विपरीत कह दिया गया अथवा कहने से विपरीत, उलटा परिणाम आ जाए तो साधुवर्ग के प्रति उसकी श्रद्धाभक्ति उठ जाएगी। अन्य अनर्थ होने की भी सम्भावना है। इस दृष्टि से निमित्तादि का कथन करना साधु के लिए वर्जित है। नक्षत्र प्रादि का अर्थ-नक्षत्र-कृत्तिका आदि जो नक्षत्र हैं, उनके विषय में बताना कि आज चन्द्रमा अमुक नक्षत्रयुक्त है, उसका फल ऐसा है। स्वप्न-फल-स्वप्न का शुभाशुभ फल बताना / वशीकरणादि योग–अमक औषध, जडी या खाद्यपदार्थों के संयोग से चर्ण या वशीकरण कर गृहस्थ को दूसरों को वश में करने के लिए देना / निमित्त-अतीत, वर्तमान और भविष्य सम्बन्धी शुभ-अशुभ फल बताने वाली विद्या या ज्योतिष विद्या के बल से शुभाशुभ फल गृहस्थों को बताना / मन्त्र-जपा जाने वाला शब्दसमूह, आकृति खींच कर कागज आदि पर लिखा जाने वाला यन्त्र तथा मन्त्र-यन्त्रसहित कठोर विधिपूर्वक सिद्ध किया जाने वाला तन्त्र / देवी को सिद्ध करने वाले मन्त्र को विद्या कहते हैं / मन्त्रादि का प्रयोग करना या बताना भी वर्जित है। भूयाहिगरणं-एकेन्द्रिय प्रादि भूत कहलाते हैं, अथवा भूत शब्द सभी प्राणियों का वाचक है / संघट्टन, परितापन आदि के द्वारा उनका अधिकरण-हनन करना भूताधिकरण है / कोई गृहस्थ यदि साग्रह पूछे तो कह देना चाहिए-साधुओं का यह अधिकारक्षेत्र नहीं है / इससे अहिंसा और भाषा दोनों को सुरक्षा होगी। 'प्रत्तवं' आदि पदों का विशेषार्थ-अत्तवं-आत्मवान्-जिसकी प्रात्मा ज्ञान-दर्शन-चारित्रमय हो, अथवा आत्मार्थी पुरुष / दिळं-जिसे अपनी आँखों से देखा हो / मियं-परिमत भाषा, अर्थात्जितना आवश्यक हो, उतना ही बोलना / प्रसंदिद्ध-असंदिग्ध—जिसमें किसी प्रकार का सन्देह न हो। पडिपुन्नं प्रतिपूर्ण अर्थात्-ऐसा न हो कि वाक्य में केवल क्रिया हो परन्तु कर्ता और कर्म न हो, अथवा केवल कर्ता हो, क्रिया न हो / अथवा जो वचन स्वर, व्यंजन, पद आदि से रहित हो / वियं५८. (क) “सब्बसो नाम सव्वकालं सव्वावत्थासु / " -जिनदास चूणि, पृ. 289 (ख) दशव. (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) प्र. 806-807 (ग) दशव. (संतबालजी) पृ. 114 (क) दशव. (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.) प्र. 809 (ख) गिहत्थाण पुच्छमाणाण णो णक्खत्तं कहेज्जा, जहा चंदिमा अज्ज अमुकेण गक्खत्तेण जुत्तोत्ति / सुमिणे अव्वत्तदंसणे / जोगो प्रोसह समवादो, अहवा निद्दे सण-वसीकरणाणि जोगो भण्णइ / निमित्तंतीतादि / मंतो असाहणो, 'एगगाहणे गहणं तज्जातीयाणमिति का विज्जा गहिता। भूताणि-एगिदियाईणि तेसिं संघद्रणपरितावणादीणि अहियं कोरंति मि तं भूताधिकरणं। --जि. चु., पृ. 299 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी) पृ. 413 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org