________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [329 प्रवज्याकालिक श्रद्धा अन्त तक सुरक्षित रखे 448. जाए सद्धाए निक्खंतो परियायठाणमुत्तमं / तमेव अणुपालेज्जा गुणे आयरियसम्मए // 60 // [448] जिस (वैराग्यभावपूर्ण) श्रद्धा से घर (अथवा संसार) से निकला और उत्तम पर्यायस्थान (प्रवज्या-स्थान) को स्वीकार किया, उसी (त्यागवैराग्यपूर्ण) श्रद्धा से आचार्य-सम्मत गुणों (मूल-गुणों) का अनुपालन करे / / 60 / / विवेचन - प्रस्तुत गाथा में साधु के आचार-सर्वस्व-मूलगुण-उत्तरगुणों का पालन उसी श्रद्धा से हो जिस श्रद्धा से (उत्कृष्ट वैराग्यभाव) से प्रव्रज्या अंगीकार की है, यह प्रतिपादन किया गया है। अणुपालेज्जा-निरन्तर पालन करे / गुणे-उत्तम गुणों में मूल गुणों और उत्तरगुणों का समावेश होता है। जिसका विस्तृत वर्णन पूर्व में किया गया है। सद्धाए : श्रद्धा से-व्युत्पत्ति के अनुसार श्रद्धा का अर्थ होता है-श्रत्-सत्य को जो धारण करती है, वह श्रद्धा है 1 x निष्कर्ष है-त्याग, वैराग्य प्रादि (साधुजीवन के परमसत्यों को मनोभाव से धारण करना श्रद्धा है / 'जाए' श्रद्धा का विशेषण है। अर्थ होता है जिस (प्रवजित होने के समय को) श्रद्धा से / प्राचारांगसूत्र में भी ऐसा ही पाठ मिलता है। आचार-प्रणिधि का फल 449. तवं चिमं संजमजोगयं च सज्झायजोगं च सया अहिटुए। सूरे व सेणाइ+ समत्तमाउहे अलमप्पणो होई प्रलं परेसि // 61 // 450. सज्झाय-सज्झरणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स / विसुज्झइ जं से* मलं पुरेकडं समोरियं रुप्पमलं व जोइणा // 2 // 70. (क) दशवं. (या वार्यश्री आत्मारामजी म.), पृ. (ख) दशवै. (संतबालजी), पृ. 117 (ग) सद्धा धम्मे पायरो। -प. चू., पृ. 200 (घ) सद्धा परिणामो भवई। -जि. चू., पृ. 293 x श्रत् सत्यं दधातीति श्रद्धा। (ङ) श्रद्धया-प्रधानगुणस्वीकरणरूपया। -हारि. वृत्ति, पत्र 238 (च) तं सद्ध पव्वज्जासमकालिणि अणुपालेज्जा। -अ.चु., पृ. 200 (छ) तमेव परियायट्ठाणमुत्तमं / --जि. चू., पृ. 293 (ज) पाचारांग 1135 पाठान्तर-+ सेणाए। * जंसि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org