________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [315 रत्नाधिकों के प्रति विनय और तप-संयम में पराक्रम की प्रेरणा 428. राइणिएसु विणयं पउंज, धुवसीलयं सययं न हायएज्जा। कुम्मोच्च अल्लीण-पलोणगुत्तो, परक्कमेज्जा तवसंजमम्मि // 40 // _[428] (साधु) रत्नाधिकों (दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ साधुओं) के प्रति विनय का प्रयोग करे। ध्र वशीलता का कदापि त्याग न करे / कछुए की तरह अालीनगुप्त और प्रलीनगुप्त होकर तप-संयम में पराक्रम करे॥४०॥ विवेचन-विनय, शोल, तप और संयम में पुरुषार्थ प्रस्तुत गाथा में साधु को संयमादि में पराक्रम करने का निर्देश किया गया है / रानिकों के प्रति विनय का प्रयोग-शास्त्रों में 'रायणिय' 'राइणिय' दोनों शब्द मिलते हैं, जिनका संस्कृतरूप 'रानिक' होता है। रात्निक की परिभाषाएँ दशवैकालिकसूत्र के व्याख्याकारों ने की हैं--(१) हारिभद्रीय वृत्ति के अनुसार--चिरदीक्षित अथवा जो ज्ञानादि भावरत्नों से अधिक समृद्ध हों वे / (2) जिनदासचूणि के अनुसार-पूर्वदीक्षित अथवा सद्भाव (तत्त्वज्ञान) के उपदेशक / (3) अगस्त्यचूणि के अनुसार प्राचार्य, उपाध्याय प्रादि समस्त साधुगण, जो अपने से पूर्व प्रवजित हुए हों, अर्थात्-दीक्षापर्याय में जो ज्येष्ठ हो / सब का प्राशय यही है कि दीक्षाज्येष्ठ एवं ज्ञानवृद्ध रानिकों या गुरुजनों के प्रति मन-वचन-काय से विनय-भक्ति करनी चाहिए।४२ ध्र वशीलता : व्याख्या-ध्र वसीलयं० इस पंक्ति का शब्दश: अर्थ होता है-साधु सतत ध्र वशीलता को न त्यागे / किन्तु वृत्तिकार और चूर्णिकार ने ध्र वशीलता का अर्थ---'अष्टादशसहस्रशीलांग-रथ' किया है / इसके लिए जैनवाङमय में प्रसिद्ध एक गाथा है जे णो करंति मणसा, णिज्जिय-आहारसन्ना सोइंदिए / पुढविकायारंभं खंतिजुत्ते ते मुणी वंदे // इसमें तीन करण, तीन योग, चार संज्ञा, पांच इन्द्रिय, पृथ्वीकायादि 5 स्थावर, 3 विकलेन्द्रिय और 1 पंचेन्द्रिय, इन नौ प्रकार के जीवों का तथा अजीव का प्रारम्भ तथा दशविध श्रमणधर्म (क्षांति आदि) का संकेत है / क्षान्ति आदि 10 श्रमणधर्म ध्र वशील हैं। उनका दशविध जीव आदि के साथ क्रमश: संयोग एवं गुणाकार करने से 18000 भेद होते हैं / उसका रेखाचित्र अग्रिम पृष्ठानुसार है-४3 गणना-विधिः-दस प्रकार के श्रमणधर्म को दशविध जीव के साथ गुणा करने से 100 भेद हुए, इन 100 भेदों को श्रोत्रेन्द्रिय आदि प्रत्येक इन्द्रिय के साथ गुणा करने पर 10045 =500 भेद हुए / इन 500 को चार संज्ञाओं के साथ गुणा करने से 2000 भेद हुए, इनको मन, वचन और काया से गुणा करने पर 6000 भेद हुए / इन्हें कृत, कारित और अनुमोदन 42. 'रातिणिया-पुन्वदिक्खिता आयरियोवज्झायादिसु सव्वसाधुसु वा अप्पणतो पढमपब्बतियेसु / ' -अगस्त्यचूणि, पृ. 195 43. 'धुवसोलयं णाम अट्ठारससीलंगसहस्साणि / ' --जि. चू., पृ. 287 -हारि. वृत्ति, पत्र 235 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org