________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [313 426. उपसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे / मायं चज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे // 38 // 427. कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स // 39 // [424] क्रोध, मान, माया और लोभ, (ये चारों) पाप को बढ़ाने वाले हैं। :) प्रात्मा का हित चाहने वाला (साधक) इन चारों दोषों का अवश्यमेव वमन (परित्याग) कर दे / / 36 / / [425] क्रोध प्रीति का नाश करता है, मान विनय का नाशक है; माया मित्रता का नाश करती है और लोभ तो सब (प्रीति, विनय, मैत्री आदि सब गुणों) का नाश करने वाला है / / 37 // [426] क्रोध का हनन 'उपशम' से करे, मान को मृदुता से जीते, माया को सरलता (ऋजुभाव) से जीते और लोभ पर संतोष के द्वारा विजय प्राप्त करे / / 38 / / [427] अनिगहीत क्रोध और मान तथा प्रवर्द्धमान माया और लोभ, ये चारों संक्लिष्ट (या कृष्ण-काले या समस्त) कषाय पुनर्जन्म को जडें सींचते हैं / / 39 / / विवेचन-कषायों पर विजय प्रस्तुत 4 गाथाओं (424 से 427) में कषायों के नाम, उनसे होने वाली हानि, उन पर विजय पाने के उपाय का और चारों कषायों का निग्रह न करने और इन्हें बढ़ने देने से संसारवृक्ष की जड़ों को अधिकाधिक सींचे जाने का प्रतिपादन किया गया है। कषाय : हानि और विजयोपाय-कषाय मुख्यतया चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / फिर इनके तीव्रता-मन्दता ग्रादि की अपेक्षा से 16 भेद तथा हास्यादि नौ नोकषाय मिलकर कुल 25 भेद हो जाते हैं। इनसे रागद्वेष का घनिष्ठ सम्बन्ध होने से पापकर्म का बन्ध होता रहता है और पापकर्म की वृद्धि से आत्मगुणों का घात होता है। क्रोध से प्रीति का, मान से विनय का, माया से मैत्री का और लोभ से सर्वगुणों का नाश हो जाता है। इन चारों कषायों को वश में न करने से केवल इहलौकिक हानि ही नहीं होती, पारलौकिक हानि भी बहुत होती है। वर्तमान और आगामी अनेक जन्म (जीवन) नष्ट हो जाते हैं, अनेक बार जन्म-मरण करते रहने पर भी सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप धर्म का लाभ नहीं मिलता। क्रोधादि कषायों पर विजय का शास्त्रीय अर्थ है-अनुदित क्रोध आदि का निरोध और उदयप्राप्त का विफलीकरण करना। क्रोधादि पर विजय के क्रमश: उपाय ये हैं--क्रोध को उपशम अर्थात् क्षमा, सहिष्णुता या शान्ति धारण करके वश में किया जा सकता है / मान पर नम्रता, विनय तथा मृदुता से, माया पर ऋजुता-सरलता एवं निश्छलता से और लोभ पर संतोष, प्रात्मतृप्ति, निःस्पृहा तथा इच्छाओं के निरोध से विजय प्राप्त की जा सकती है / 37 क्रोधादि कषायों से प्रात्महित का नाश : कैसे ? वस्तुत: आध्यात्मिक दोष जितने अंशों में नष्ट होते हैं, उतने ही अंशों में अात्मिक गुणों (ज्ञानादि) की उन्नति और वृद्धि होती है। समस्त 37. जिनदासचूणि, पृ. 286, हारि. वृत्ति, पत्र 234 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org