________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] [317 प्रमादरहित होकर ज्ञानाचार में संलग्न रहने की प्रेरणा 429. निई च न बहु मन्नेज्जा, सप्पहासं विवज्जए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायम्मि रो सया // 41 // 430. जोगं च समणधम्मम्मि जुजे अणलसो धुवं / जुत्तो य समणधम्मम्मि अट्ठ लहइ अणुत्तरं // 42 // 431. इहलोग-पारत्तहियं जेणं गच्छइ सोग्गई। बहुसुय पज्जुवासेज्जा, पुच्छेज्जऽत्यविणिच्छय / / 43 // [426] साधु निद्रा को बहुमान न दे। अत्यन्त हास्य को भी वजित करे, पारस्परिक विकथाओं में रमण न करे, (किन्तु) सदा स्वाध्याय में रत रहे / / 41 / / [430] साधु नालस्यरहित होकर श्रमणधर्म में योगों (मन-वचन-काया के व्यापार) को सदैव ( यथोचितरूप से ) नियुक्त (संलग्न) करे; क्योंकि श्रमणधर्म में संलग्न (जुटा हुआ) साधु अनुन्तर (सर्वोत्तम) अर्थ (पुरुषार्थ-मोक्ष) को प्राप्त करता है / / 42 / / [431] जिस (सम्यग्ज्ञान) के द्वारा इहलोक और परलोक में हित होता है (मृत्यु के पश्चात) सुगति प्राप्त होती है। (उस सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए) वह बहुश्रुत (मुनि) की पर्युपासना करे और (शास्त्रीय पाठ के) अर्थ के विनिश्चय के लिए पृच्छा करे // 43 / / विवेचन–स्वाध्याय, श्रमणधर्म और सम्यग्ज्ञान में अहनिश रत रहने की प्रेरणा प्रस्तुत तीन गाथाओं (426 से 431 तक) में साधक को निद्रा, हास्य, आलस्य, विकथा, आदि प्रमाद से दूर रह कर अहर्निश स्वाध्याय, श्रमणधर्म के पालन एवं सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति के लिए यथोचित पुरुषार्थरत रहने की प्रेरणा दी गई है / स्वाध्याय आदि में रत रहने के लिए प्रमादत्याग प्रावश्यक-साधु को अपना समय एवं शक्ति को सार्थक करने के लिए सदैव स्वाध्यायरत या श्रमणधर्म रत रहना चाहिए। इसके लिए उसे प्रमाद के इन तीन अंगों से सर्वथा दूर रहना चाहिए-अत्यधिक निद्रा से, सामूहिक परस्पर हास्य से और स्त्री आदि की विकथा से / / 5 / / निच न बह मन्नज्जा : व्याख्या-निद्रा को बहुमान न दे अर्थात्---निद्रा का सत्कार न करे, प्रकामशायी न हो तथा जिस प्रकार निद्रा अधिक आए, ऐसे उपाय न करे / सूत्रकृतांग में बताया गया है कि 'शयनकाल में सोए / ' निद्रा का हेतु केवल श्रम-निवारण है, परन्तु वही जब शौक की वस्तु हो जाए तो संयम में हानि पहुंचती है।४६ 45. दशवकालिक (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.) पृ. 794 46. (क) वही, पृ. 794 (ख) "निद्रा च न बह मन्येत'---न प्रकामशायी स्यात / " -हारि. वृत्ति, पत्र 235 (ग) दशवै. (संतबालजी) पृ. 112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org