________________ अट्ठमं अज्झयणं : आयारपरिणहि अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि आचार-प्रणिधि की प्राप्ति के पश्चात् कर्तव्य-निर्देश की प्रतिज्ञा [389] आयारपहि* लद्धजहा कायव्य भिक्खुणा / तं भे उदाहरिस्सामि प्राणुपुर्दिव सुणेह मे // 1 // [386] आचार-प्रणिधि (आचाररूप उत्कृष्ट निधि) को पाकर, भिक्षु को जिस प्रकार (जो) करना चाहिए, वह (प्रकार) मैं तुम्हें कहूँगा, जिसे तुम अनुक्रम से मुझसे सुनो / / 1 // विवेचन-आचारप्रणिधि : व्याख्या-प्रणिधि का अर्थ है---उत्कृष्ट निधि, खजाना या कोष अथवा समाधि या एकाग्रता अर्थात् प्राचार के सर्वात्मना अध्यवसाय या दृढ मानसिक संकल्प या इन्द्रियों और मन को प्राचार में निहित या प्रवत्त करना या एकाग्र करनाल अथवा पाने के लिए। जिनदासचूणि के अनुसार अर्थ है-प्राचारप्रणिधि की प्राप्ति के लिए / विभिन्न पहलुनों से विविध जीवों की हिंसा का निषेध 390. पुढवि-दग-अगणि-मारुय-तण-रुक्ख* सबीयगा। तसा य पाणा जीव ति, इइ वुत्तं महेसिणा // 2 // 361. तेसि अच्छणजोएण निच्चं होयव्ययं सिया। मणसा काय-वक्केण एवं भवइ संजए // 3 // 392. पुढवि भित्ति सिलं लेलु, नेव भिदे, न संलिहे। तिविहेण करण जोएण, संजए सुसमाहिए // 4 // 393. सुद्धपुढवीए न निसिए ससरक्खम्मि य आसणे। पमज्जित्तु निसीएज्जा +जाइत्ता जस्स उग्गहं / / 5 / / 1. (क) दश. (पत्राकार, प्राचार्यश्री पारमारामजी म.) पृ. 730 (ख) आयारप्पणिधौ-पायारे सव्वापणा अज्झवसातो। (घ) दशवै. नियुक्ति गा. 299 / -अगस्त्यचूणि पृ. 184 2. (क) लद्ध-पाविऊण / -अग. चू., पृ. 184 (ख) लब्धं प्राप्तये / --जिनदासचूर्णि, पृ. 271 पाठान्तर-*अायारप्पणिहिं / पाठान्तर-* रुक्खस्स बीयगा // सया। + जाणित्तु जाइयोग्गहं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org