________________ अदुमं अज्झयणं : आयारपरिणही अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि प्राथमिक * यह दशवेकालिकसूत्र का प्राचार-प्रणिधि नामक पाठवाँ अध्ययन है। * प्राचार का वर्णन पहले तृतीय अध्ययन में संक्षेप से और छठे अध्ययन में विस्तार से किया गया है। इसका मुख्य प्रतिपाद्य है--प्राचार का प्रणिधान / ' * बँधी-बँधाई आचारसंहिता पर चलना आसान है। जो आचार-विषयक नियमोपनियम तृतीय और छठे अध्ययन में बताए हैं, उन्हें स्थूलरूप से पालना सहज है। परन्तु प्राचार को पाकर निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी को कैसे चलना चाहिए ? प्राचार की सरिता में अवगाहन करते समय मन, वचन, काया एवं इन्द्रियों को किस प्रकार प्रवाहित करना चाहिए? यही पथप्रदर्शन इस अध्ययन में है। क्योंकि कई बार साधक स्थूल दृष्टि से प्राचार का पालन करता हुआ भी अन्तरंग से प्राचार में निष्ठा, एकाग्रता या प्रवत्ति नहीं कर पाता। जिस प्रकार उच्छखल घोड़े सारथी को उत्पथ पर ले जाते हैं, वैसे ही दुष्प्रणिहित (रागद्वेषयुक्त) इन्द्रियाँ साधक को उत्पथ में भटका देती हैं। यह इन्द्रियों का दुष्प्रणिधान है / शब्दादि विषयों में इन्द्रियों का रागद्वेषयुक्त लगाव न होना-समत्वयुक्त प्रवृत्ति होना इन्द्रियों का सुप्रणिधान है। इसी प्रकार मन क्रोधादि कषाय या राग, द्वेष, मोह के प्रवाह में पड़कर भटक जाता है, इसे मन का दुष्प्रणिधान कहते हैं। किन्तु कषायों तथा रागद्वेषादि के प्रवाह में मन को न बहने देना, मन का सुप्रणिधान है / * अत: 'प्राचार-प्रणिधि' का अर्थ हुअा-अाचार में इन्द्रियों और मन को सुप्रणिहित करना-एकाग्र करना या निहित करना / जिस प्रकार निधान (खजाने) में धन को सुरक्षित रखा जाता है, उसी प्रकार आचाररूपी धन को सुरक्षित रखने के लिए यह अध्ययन प्राचार की प्रकर्ष (उत्कृष्ट) निधि (निधान) है। 1. 'जो पुठ्वि उद्दिटो, आयारो सो अहीणमइरित्तो।' -दश. नियुक्ति गा. 293 2. (क) दशवै. (संतबालजी) पृ. 101 (ख) जस्स खलु दुप्पणिहिआणि इंदिपाइं तवं चरंतस्स / सो होरइ असहीणेहिं सारही वा तुरंगेहिं // 299 // सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति / मन्नामि उच्छुप्फुल्लं व, निष्फलं तस्स सामन्नं // 301 // -दशवं. नियुक्ति मा. 299, 301, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org