________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] . [291 विवेचन-अध्ययन का सारांश प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (385 से 387 तक) में इस अध्ययन में प्रतिपादित भाषाशुद्धि के विवेक का सारांश दिया गया है। भाषाविवेकसूत्र ये हैं—(१) सावध की अनुमोदिनो, (2) अवधारिणी (निश्चयकारिणी या संशयकारिणी), (3) परोपघातिनी तथा (4) क्रोध-लोभ-भय-हास्य से प्रेरित भाषा न बोले, (5) सुवाक्यशुद्धि का सम्यक् विचार करे, (6) दोषयुक्त वाणी का त्याग करे, (7) पूर्वापर विचार करके दोषरहित वाणी बोले, (8) भाषा के दोषों और गुणों को जाने, (9) षट्काय के प्रति संयत और सदा यत्नवान होकर प्रबुद्ध साधु स्व-पर-हितकर और प्राणियों के लिए अनुकूल (मधुर) भाषा का ही प्रयोग करे / 42 सावधानुमोदिनी आदि शब्दों को व्याख्या-सावधानुमोदिनी-जो भाषा पापकर्म का अनुमोदन करने वाली हो; यथा--"अच्छा हुआ, यह पापी ग्राम नष्ट कर दिया गया।" अवधारिणी : दो अर्थ-(१) निश्चयकारिणी यथा--'यह ऐसा ही है / ' अथवा 'यह बुरा ही है / ' (2) अथवा संदिग्ध वस्तु के विषय में असंदिग्ध वचन बोलना, जैसे-'भंते ! यह ऐसा ही है।' अथवा (3) संशयकारिणी, यथा-यह चोर है या परस्त्रीगामी ? परोपघातिनी-जिसके बोलने से दूसरे जीवों को पीड़ा पहुँचती हो, यथा-मांस खाने में कोई दोष नहीं है। सवक्क-सुद्धि-सुवक्कसुद्धि चार रूप : चार अर्थ(१) स वाक्यशुद्धि-वह मुनि वाक्य शुद्धि को, (2) सद्वाक्यशुद्धि-सद्वाक्य की शुद्धि को, (3) स्ववाक्यशुद्धि-अपने वाक्य की शुद्धि को, (4) सुवाक्य शुद्धि-श्रेष्ठ वाक्-(वचन) के (विचार कर) / हियाणुलोमियं-सर्वजीवहितकर तथा मधुर होने से सबको रुचिकर या अनुकूल 13 भयसा व माणवो-हे मानव (साधो !) हँसी में सावध का अनुमोदन करने वाली भाषा न बोले, भय, क्रोधादि से बोलने की तो बात ही दूर ! तत्त्व केवलिगम्य या बहुश्रुतगम्य / 4 42. दसवेयालियसुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 53 (क) दशव, पत्राकार (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.) पत्र 721 (ख) अवधारिणी-इदमित्थमेबेति, संशयकारिणी वा / अवधारिणीम् - अशोभन एबाध्यमित्यादिरूपाम् / -हा. व., प. 253-254 (म) "प्रोधारिणीमसंदिद्धरूवं संदिद्ध विभणितं च-"से णणं भंते ! मण्णामीति प्रोधारिणी भासा / " अग. चूर्णि, पृ. 178 (घ) तत्थ ओहारिणी संकिया भण्णति / जहा-एसो चोरो, पारदारियो? एवमादि / —जिन. चूणि, पृ. 321 (ङ) दशवं. पत्राकार (प्रा. प्रात्मा.) पत्र 723 44. (क) माणवा ! इति मणुस्सामंतणं, "मणुस्सेसु धम्मोवदेस' इति / -प्र. चू., पृ. 178 (ख) माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुधम्मोत्ति काऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा--हे माणवा ! (ग) मानवः-पुमान् साधुः / -हा. वृ., पत्र 223 (घ) दसवेयालियं (मुनिनथमलजी) पृ. 367 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org