________________ अष्टम अध्ययन : आचार-प्रणिधि] सकता, इसलिए उनका जानना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि उनके जानने पर ही साधक के द्वारा प्रत्येक क्रिया करते समय उन जीवों की रक्षा, दया या यतना की जा सकती है। _प्रस्तुत गाथा में त्रस और स्थावर दोनों राशियों में से जो सूक्ष्म शरीर वाले जीव हैं, उनका उल्लेख किया गया है, ताकि दया के अधिकारी अप्रमत्त रह कर उनकी रक्षा या यतना कर सकें। प्रतिलेखन, परिष्ठापन एवं सर्वक्रियाओं में यतना का निर्देश 405. धुवं च पडिलेहेज्जा जोगसा पाय-कंबलं / सेज्जमुच्चारभूमि च संथारं अदुवाऽऽसणं // 17 // 406. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण जल्लियं / फासुयं पडिलेहित्ता परिट्ठावेज्ज संजए // 18 // 407. पविसित्तु परागारं पाणट्ठा भोयणस्स वा। जयं चिठे मियं भासे न य रूवेसुमणं करे // 19 // [405] (संयमी साधु, साध्वी) सदैव यथासमय मनोयोग (या उपयोगपूर्वक स्वस्थ चित्त से एकाग्रतापूर्वक) पात्र, कम्बल, शय्या (शयनस्थान या उपाश्रय), उच्चारभूमि, संस्तारक (बिछौना) अथवा प्रासन का प्रतिलेखन करे / / 17 / / 6406] संयमी (साधु या साध्वी) उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), कफ, नाक का मैल (लीट) और पसीना (आदि अशुचि पदार्थ डालने के लिए) प्रासुक (निर्जीव) भूमि का प्रतिलेखन करके (तत्पश्चात्) उनका (यतनापूर्वक) परिष्ठापन (उत्सर्ग) करे / / 18 / / [407] पानी के लिए या भोजन के लिए गृहस्थ के (पर) घर में प्रवेश करके साधु (वहाँ) यतना से खड़ा रहे, परिमित बोले और (वहाँ मकान, अन्य वस्तुओं तथा स्त्रियों आदि के रूप में मन को डांवाडोल न करे / / 16 / / विवेचन–अप्रमाद के तीन सूत्र---प्रस्तुत तीन सूत्रगाथाओं (405 से 407) में प्रतिलेखन, परिष्ठापन और क्रियाओं में यतना, इन तीन सूत्रों का प्राश्रय लेकर अप्रमाद की प्रेरणा दी गई है। प्रतिलेखनसूत्र-अपने निश्राय में जो भी वस्त्र, पात्रादि उपकरण या मकान आदि हैं, अथवा जहाँ साधू को मल-मूत्रादि का विसर्जन करना हो, उस भूमि का अपने नेत्रों से सूक्ष्म रूप से देखना कि यहाँ 'कोई जीव-जन्तु तो नहीं है। अगर कोई जीव-जन्तु हो तो उसे किसी प्रकार की 7. (क) सव्वभावेण-लिंग-लक्खणभेदविकप्पेणं ! अहवा सबसभावेण // -अगस्त्य चूणि, पृ. 188 (ख) सर्वभावेन शक्त यनुरूपेण स्वरूप-संरक्षणादिना। हारि. वृत्ति, पत्र 230 (म) सव्वपगारेहिं वण्णसंठाणाईहिं णाऊणं ति, अहवा ण सवपरियाएहि छउमत्थो सक्केइ उवलभिउं कि पुण जो जस्स विसयो? तेण सम्वेण भावेण जाणिऊणं ति / 5. (क) दशव. पत्राकार, (आचार्यश्री प्रात्माराम जी म) पृ. 748, 751, 753 (ख) दशवं. (संतबालजी) पृ. 105 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org