________________ 286] [दशवकालिकसूत्र असंजयं-असंयत:-बैठने, उठने आदि क्रियानों में सम्यक यतना-संयम-रहित / असंयमी पुरुष लोहे के तपे हुए गोले के समान है उसे जिधर से छुयो, उधर से जला देता है, वैसे ही असंयमी चारों ओर से जोवों को कष्ट देता है / वह सोया हुआ भी अहिंसक नहीं होता।३२ पक्व प्रादि विषयों में निरवद्यवचन-विवेक-यदि कोई साधु किसी रुग्ण साधु के लिए जरूरत होने पर सहस्रयाक तेल किसी सद्गृहस्थ के यहाँ से लाया, तब पूछने पर वह कह सकता हैबड़े प्रयत्न (पारम्भ) से पकाया गया है / वन में विहार करते समय कटे हुए वृक्षों को देख कर मुनि अन्य मुनियों से कह सकता है-यह वन बड़े प्रयत्न से काटा गया है। तथा किसी कन्या को दीक्षा के लिए उद्यत देख कर कहे-इसका पालन-पोषण बड़ी सावधानी से करने योग्य है। ये जो सांसारिक क्रियाएं हैं, वे सब कर्मबन्धन को ही कारण हैं / यदि किसो चोर पर अत्यन्त मार पड़ रही हो तब कहा जा सकता है दुष्कर्म का फल अतोव कटु होता है। देखो, दुष्कर्म के कारण बेचारे पर कितनो कठोर मार पड़ रही है / 33 व्यापार से सम्बन्धित विषयों में बोलने के निषेध का कारण यह पदार्थ सर्वोत्कृष्ट है, शीघ्र खरीदने योग्य है, इत्यादि वचन बोलने से अप्रीति, अधिकरण और अन्तराय दोष लगता है। साधु के द्वारा कही बात को सुन कर यदि कोई गृहस्थ व्यापार सम्बन्धी नाना क्रियाओं में लग जाए तो उसमें बहुत-से अनर्थों के होने की सम्भावना है। यदि साधु द्वारा कथित वस्तु महंगी या सस्ती न हुई तो साधु के प्रति अप्रीति-अप्रतीति पैदा होगी / यदि उसी प्रकार हो गई तो अधिकरणादि दोष उत्पन्न होंगे 134 'मैं सब को सब बातें कह दूंगा', इत्यादि निश्चयात्मक भाषा निषेध क्यों ? -साधु यदि यह स्वीकार करता है कि मैं तुम्हारी सब बातें कह दूंगा तो उसके सत्यमहावत में दोष लगता है, क्योंकि जिस प्रकार उस व्यक्ति ने स्वर-व्यञ्जन से युक्त भाषा व्यक्त की, उसी प्रकार नहीं कही जा सकती। इसी प्रकार दूसरा भी उस साधु की बात ज्यों को त्यों कह नहीं सकता / कारण वही पूर्वोक्त है / यदि नो मन में पाया, सो कहता चला जाएगा तो एक नहीं, अनेक आपत्तियाँ पाती चली जाएँगो, जिनका हटाना कठिन होगा / 32. (क) दशव. पत्राकार (प्राचार्यश्री प्रात्मारामजी म.) 701 (ख) 'कम्महेउयं नाम सिक्खा पूज्वगं ति वृत्तं भवति ।'–जिन.चु., पृ. 259 (ग) अचक्कियं नाम असक्क, को एतस्स मोल्लं करेउं समत्थो त्ति, एवं अचक्कि यं भष्णइ / अचितं नाम ण एतस्स गुणा अम्हारिसेहिं पागएहिं चितिजति ।-जि. चू., पृ. 260 (घ) दशवै. पत्राकार (प्रा. अात्मा.) प. 709 (ड) 'नाऽधिकारोऽत्र तपस्विनां व्यापाराभावात् ।'-हा. व., पत्र 221 33. दशव. पत्राकार (प्राचार्यश्री पात्मारामजी म.) प. 702 34. दशवै. पत्राकार (ग्रा. प्रात्मा.) प. 704, 707, 708 35. वही, पत्राकार, प. 706 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org