________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि [271 कैसे बोला जाए? शास्त्रकार ने भूतकालीन, भविष्यकालीन या वर्तमानकालीन निश्चयकारी भाषा का निषेध किया है, किन्तु कोई साधु या श्रावक या गुरु किसी भूत, भविष्य या वर्तमानकालिक किसी कार्य, व्यक्ति या वस्तु के विषय में पूछे तो उन्हें क्या कहा जाए? कैसे बोला जाए, जिससे भाषासम्बधी दोष न लगे? इसका समाधान यह है कि जिस विषय में वक्ता को सन्देह हो, या पूरा ज्ञान न हो, जो विषय अनिर्णीत हो, उसके विषय में निश्चयात्मक भाषा नहीं बोलनी चाहिए, कि ऐसा करूगा, ऐसा होगा, ऐसा ही था, यही हो रहा है, इत्यादि / किन्तु प्रत्येक वाक्य के साथ व्यवहार शब्द का प्रयोग करना चाहिए, जिससे भाषा निश्चयकारी न रहे। जहाँ सन्देह हो, वहाँ कहना चाहिए ----'व्यवहार से ऐसा है, मुझे जहाँ तक स्मरण है, या मेरा अनुभव है कि ऐसा है या ऐसा था। 'वहाँ जाने के भाव हैं,' सम्भव है, यह इस प्रकार का रहा हो। अनेकान्तवाद-स्यादवाद बोलने का अभ्यास करना चाहिए। इस गाथा का प्राशय यह है कि जिस विषय में किसी प्रकार की शंका न रही हो, जिस तथ्य को यथार्थ रूप से जान लिया हो, उसके विषय में साधु या साध्वी निश्चयात्मक कथन कर सकता है। एक बात और है–साधु-साध्वी को किसी विषय में जैसा जाना, सुना, समझा और प्रत्यक्ष, अनुमान, पागम एवं उपमान आदि प्रमाणों से सोचासमझा हो, तदनुसार हित, मित एवं यथार्थ कथन करना चाहिए, क्योंकि जिस प्रमाण की अपेक्षा से जो कहा जाता है, वह उस प्रमाण के अनुसार निश्चयात्मक कथन है। सत्य, किन्तु पीडाकारी कठोर भाषा का निषेध 342. तहेव फरुसा भासा, गुरुभूप्रोवघाइणो / सच्चा वि सा न वत्तम्वा, जओ पावस्स प्रागमो // 11 // 343. तहेव काणं काणेत्ति, पंडगं 'पंडगे' ति वा। वाहियं वा वि रोगि ति, तेणं चोरे त्ति नो वए // 12 // 344. एएणऽन्नेण अढण परो जेणुवहम्मई / पायारभाव-दोसण्णू ण तं मासेज्ज पण्णवं // 13 // [342] इसी प्रकार जो भाषा कठोर हो तथा बहुत (या महान् } प्राणियों का उपघात करने बाली हो, वह सत्य होने पर भी बोलने योग्य नहीं है। क्योंकि ऐसी भाषा से पापकम का बन्ध (या प्रास्रव) होता है / / 11 / / [343] इसी प्रकार काने को काना, नपुंसक (पण्डक) को नपुंसक तथा रोगी को रोगी और चोर को चोर न कहे / / 12 // [344] इस (पूर्वगाथा में उक्त) अर्थ (भाषा) से अथवा अन्य (इसी कोटि की दूसरे) जिस अर्थ (भाषा) से कोई प्राणी पीड़ित (उपहत) होता है, उस अर्थ (भाषा) को प्राचार (वचनसमिति 9. (क) दशवालिक पत्राकार (प्राचार्यश्री आत्मारामजी म.). पत्र 651 (ख) तहेवाणागतं अत्थ जं होति अवहारियं / निस्संकियं पडुप्पण्णे एवमेयति गिदिसे // --जिन. चूणि, पृ. 248 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), प. 351 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org