________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि [269 वत्तिकार इस गाथा को सत्यामषा (सत्यासत्य) तथा सावद्य एवं कर्कश सत्य का निषेधपरक कहते हैं, किन्तु सत्या मषा और असत्या ये दोनों भाषाएँ तो सावध होने के कारण सर्वथा प्रवक्तव्य हैं, फिर इनके पुननिषेध की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इसके अनुसार इस पंक्ति का प्राशय यह है कि बुद्धिमान् भिक्षु सत्या मषा-अर्थात्-कुछ सत्य और कुछ असत्य, ऐसी मिश्रभाषा भी न बोले, क्योंकि मिश्र भाषा में भी सत्य का अंश होने से जनता अधिक भ्रमित होती है, और स्वयं भी सत्यवादी कहलाने का दम्भ करता है। ऐसी दम्भवृत्ति ऐहिक और पारलौकिक हित में अत्यन्त बाधक है। फलितार्थ-इसकी तुलना प्राचारचला से भी की जा सकती है। वहाँ चारों प्रकार की भाषा का स्वरूप बताने के बाद कहा गया है कि "मुनि को तथाप्रकार की सत्यभाषा भी सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, कठोर (परुष), पासवकारी, छेदनकारी, भेदनकारी, परितापनकारी, और भूतोपघातिनी नहीं बोलनी चाहिए। वितहं पि तहामुत्ति० : व्याख्या-(१) अगस्त्यचूणि के अनुसार--जो मनुष्य अन्यथाऽवस्थित, किन्तु किसी भाव से तथाभूतस्वरूप वाली वस्तु का प्राश्रय लेकर बोलता है / (2) जिनदासमहत्तर के अनुसार-जो पुरुष वितथमूर्तिवाली वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है। (3) जो असत्य (वितथ) वस्तु, आकृति से सत्यवस्तु के समान प्रतिभासित होती है साधु या साध्वी उसे सत्यवस्तु के समान न बोले / जैसे—किसी पुरुष ने स्त्रीवेष धारण किया हुआ है, साधु उसे देखकर ऐसा न कहे कि स्त्री आ रही है / संदेहदशा में यह निषेध है / / जब तक स्त्री या पुरुष का भलीभांति निर्णय न हो जाए, तब तक स्त्रीवेषी या पुरुषवेषी कहना चाहिए / किन्तु शंकित भाषा नहीं बोलनी चाहिए।' कालादिविषयक निश्चयकारी-भाषा-निषेध 337. तम्हा गच्छामो बक्खामो, प्रमुगं वा णे भविस्सई / अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सई // 6 // 338. एकमाई उ जा भासा एसकालम्मि संकिया। संपयाईयम? वा, तं पि धीरो विवज्जए / / 7 // 336. अईयम्मि य कालम्मि, पच्चप्पन्नमणागए। जमट्ठ तु न जाणेज्जा , 'एवमेय' ति नो बए / / 8 / / 6. (क) अतहा वितह-प्राणहावस्थित, जहा पूरिसमित्थिनेवत्थं भणति-सोभणे इत्थी एवमादि।""जतो एवं णेवच्छादीण य संदिद्ध वि दोसो, तम्हा / -अ. चू., पृ. 165 (ख) वित्तहं नाम जं वत्थ न तेण सभावेण प्रत्थि तं वितहं भण्णइ / अविसहो संभावणे, मुत्ती सरीरं भण्णइ, स्थ पुरिसं इत्थिणेवत्थियं, इत्थि वा पुरिसनेवत्थियं दण जो भास इ-इमा इत्थिया गायति णच्चाइ, वाएइ गच्छइ, इमो वा पुरिसो गायइ णच्चइ बाएति गच्छइत्ति / " --जिन. चर्णि, प. 246 7. दश. (मुनि नथमलजी) 5. 349, दशवै. (प्राचार्य प्रात्मः.) पत्राकार, पृ. 643 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org