________________ 272] कारी [वश वैकालिकसूत्र तथा वाग्गुप्ति-गत प्राचरण) सम्बन्धी भावदोष (प्रद्वेष-प्रमाद-रूप वैचारिक दोष) को जाननेवाला प्रज्ञावान् साधु (कदापि) न बोले // 13 / / विवेचन-परपीड़ाकारी भाषा सत्य होते हुए भी त्याज्य-प्राणियों के चित्त को प्राघात पहुँचाने वाली, कठोर, कटु, कर्कश, एवं पीड़ित करने वाली भाषा भले ही सत्य हो, किन्तु उसका प्रयोग कदापि नहीं करना चाहिए। नेत्र-पीडा के कारण किसी व्यक्ति की एक आँख जाती रही, उसे काना कहना, अन्धे को अन्धा कहना, अथवा रोगी को रोगी या चोर को चोर कहना सत्य है, फिर ऐसे कथन का निषेध क्यों किया गया? इसका समाधान यह है, जो भाषा स्नेहरहित या कोमलता से रहित होने के कारण कठोर या कट है, जिसे सुनकर दूसरे प्राणी को मन में चोट पहुँचती है, जो भाषा मर्मभेदिनी है, प्राणियों को विघातक है, वह भाषा सच्ची होने पर भी बोलने योग्य नहीं है। यद्यपि वह भाषा बाह्य अर्थ को अपेक्षा से सत्य मालूम होती है, किन्तु भावार्थ की अपेक्षा से वह प्राणियों के लिए हितकर-सुखकर न होने से असत्यस्वरूप है। छोटे या बड़े किसी भी जीव की घात करने वाली भाषा मुनि के लिए प्रवक्तव्य है। जिस प्रकार असत्यभाषण से पापकर्म का बन्ध होता है, उसी प्रकार ऐ कठोर भाषा के बोलने से भी पापकर्मों का प्रागमन होता है। काना आदि अपमानजनक शब्दों से दूसरे को सम्बोधन करने से उसके हृदय को अतोव दुःख पहुँचता है, वह मन में अत्यधिक लज्जित होता है, आत्महत्या के लिए भी उतारू हो सकता है। जो साधु-साध्वी दोघं दृष्टि से सोचे बिना ही परपोड़ाकारी कठोर भाषा का प्रयोग करते हैं, या मर्मयुक्त वचन बोलते हैं, अन्य प्रात्मा का हनन करते हैं, अपनी गंभीरता और महानता को नष्ट करके क्षुद्रता और क्रूरता को अपनाते हैं, ऐसे साधुसाध्वी के प्रति जनता को अप्रीति, अश्रद्धा, घृणा, अभक्ति, एवं वरविरोधभावना पैदा हो जाती है। ऐसे साधु-साध्वी को भी लज्जानाश, धृष्टता, क्रूरता, भावहिंसा, बौद्धिक विराधना, अस्थिरता एवं प्रतिज्ञाभ्रष्टता आदि पाप-दोष लगते हैं / वह संयम का विराधक हो जाता है। साधु के दो विशेषण : सार्थक--शास्त्रकार ने यहाँ भाषाशुद्धि के अनुसार चलने वाले साधु के दो विशेषण अंकित किये हैं, जो साधु की गम्भीरता एवं दक्षता सूचित करते हैं-(१) प्राचारभावदोषज्ञ और (2) प्रज्ञावान् / ' फरसा-परुष = कठोर, रूक्ष, स्नेहवजित अथवा मर्मप्रकाशन करने वाली वाणी / गुरुभूप्रोवघाइणी-(१) जिस भाषा के प्रयोग से महान् भूतोपघात हो। (2) छोटे-बड़े सभी जीवों के लिए घातक; (3) गुरुजनों (बुजुर्गों या गुरुषों-मातापिता आदि) को संतप्त करने वाली / (4) अभ्याख्यानात्मक / " 9. (क) दशवं. (आचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पत्राकार, पत्र 652-653 (ख) वही, पृ. 655-656 10. दश. (आचार्यश्री प्रात्मारामजी म.), पत्राकार, 5. 655 11. (क) वयणनियमणमायारो, एयंमि अायारे सति भावदोसो-पटू चित्त तेण भावदोसेण न भासेज्ज / अहवा प्रायारे भावदोसो पमातो, पमातेण ण भासेज्ज / --जि. चु., पृ. 168 (ख) फरुसा णाम हवज्जिया, जीए भासाए भासियाए गुरुप्रो भूयाणवघामो भवइ। -वही, पृ. 249 (ग) परुषा भाषा-निष्ठुरा भावस्नेहरहिता। -हा. वृ., पत्र 215 / (घ) परुषां मर्मोदघाटनपराम् / प्राचार चू., 4-10 पृ. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org