________________ 262 [दशवकालिकसूत्र [330] व्यामोह-रहित तत्त्वदर्शी तथा तप, संयम और प्रार्जव गुण में रत रहने वाले वे (पूर्वोक्त अष्टादश प्राचारस्थानों के पालक साधु) अपने शरीर (आप) को क्षीण (कृश) कर देते हैं / वे पूर्वकृत पापों का क्षय कर डालते हैं और नये पाप नहीं करते / / 67 / / [331] सदा उपशान्त, ममत्व-रहित, अकिंचन (निष्परिग्रही) अपनी अध्यात्म-विद्या के अनुगामी तथा जगत् के जीवों के त्राता और यशस्वी हैं, वे शरद ऋतु के निर्मल चन्द्रमा के समान सर्वथा विमल (कर्ममल से रहित) साधु (या साध्वी) सिद्धि (मुक्ति) को अथवा (कर्म शेष रहने पर सौधर्मावतंसक आदि) विमानों को प्राप्त करते हैं / / 6 / / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-अष्टादश आचारस्थान-पालक साधु की अर्हताएँ-प्रस्तुत दो (330-331) सूत्रगाथाओं में पूर्वोक्त अष्टादश आचार-स्थानों के पालक साधु-साध्वियों की अर्हताओं का वर्णन करके उनकी प्राचार-पालन-निष्ठा के सुपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है / प्राचारपालननिष्ठ साधुवर्ग की अर्हताएँ-(१) अमोहदर्शी, (2) तप, संयम और आर्जव गुण में रत, (3) शरीर को तपश्चर्या एवं कठोर आचार से कृश करने वाले, (4) सदा उपशान्त, (5) ममत्वरहित, (6) अकिंचन, (7) अध्यात्मविद्या के अनुगामी, (8) षड्जीवनिकायवाता, (9) यशस्वी एवं (10) शरद् ऋतु के निर्मल चन्द्र के समान कर्ममलरहित / 'अमोहदंसिणो' प्रादि पदों की व्याख्या-अमोहदर्शी-मोह का प्रतिपक्षी अमोह है / अमोहदर्शी का अर्थ अविपरीतदर्शी अर्थात् सम्यग्दृष्टि या मोहरहित होकर तत्व का द्रष्टा, है / क्योंकि जो साधु मोहरहित होकर पदार्थों का स्वरूप देखते हैं, वे ही यथार्थ द्रष्टा हो सकते हैं / अप्पाणं खति--आत्मा शब्द शरीर और जीव दोनों अर्थों में प्रयुक्त होता है / जैसे-मृत शरीर को देख कर कहा जाता है-इसका अात्मा (जीव) चला गया। यहाँ प्रात्मा जीव के अर्थ में प्रयुक्त है। यह कृशात्मा या स्थूलात्मा है', इस प्रयोग में आत्मा शरीर के अर्थ में है। प्रस्तुत गाथा में आत्मा 'शरीर' अर्थ में प्रयुक्त है। शरीर 5 प्रकार के होते हैं, किन्तु यहाँ कार्मण शरीर का अधिकार है / तप द्वारा कार्मण (सूक्ष्म) शरीर का क्षय (कर्मक्षय) किया जाता है, तब औदारिक (स्थूल) शरीर तो स्वत: कृश हो जाता है / अथवा प्रौदारिक शरीर के क्षयार्थ तप किया जाता है, तब कार्मण शरीर स्वयं कृश हो जाता है। सप्रोवसंता : सदा उपशान्त-जिनको अपकार करने वाले पर भी क्रोध नहीं पाता / अममा-अकिचणा--जो शरीरादि पर ममत्वभाव से रहित हैं और द्रव्यभावपरिग्रह सविज्ज-विज्जाणुगया—स्व यानी आत्मा की विद्या यानी विज्ञान-अध्यात्मविद्या / तात्पर्य यह है कि स्वविद्या ही विद्या है, उससे जो अनुगत-युक्त हैं। विद्या शब्द का दुबारा प्रयोग लौकिक विद्या का निषेध करने के लिए है। वृत्तिकार ने स्वविद्या का अर्थ केवल श्रुतज्ञानरूप परलोकोपकारिणी विद्या किया है / अर्थात् जो परलोकोपकारिणी श्रुतज्ञान विद्या के अतिरिक्त इहलोकोपकारिणी शिल्पादिकलाओं में प्रवृत्त नहीं हैं। उउपसन्ने विमले०-ऋतु-प्रसन्न-छह ऋतुत्रों में सबसे अधिक प्रसन्न ऋतु शरद् है / शरद् ऋतु के चन्द्रमा के समान विमल-पापकर्ममल रहित है / विमाणाई उति५५. दसवेयालियं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 46. + + राहत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org