________________ सप्तम अध्ययन : वाक्यशुद्धि] [265 का हेतु बनती है। प्रस्तुत अध्ययन वाक्यशुद्धि का विवेक देने हेतु स्वतंत्र रूप से निर्मित है, जिससे साधक वाणी के महत्त्व को समझ सके ! वाणी अन्तःकरण के भावों को व्यक्त करने का साधन है, यही इसको उपयोगिता है / किसी कार्य, प्रयोजन या कारण के बिना वाणी का उपयोग करना वाचालता है, इसे वाणी का दुरुपयोग कहा जा सकता है / उस वाणी का, श्रोतागण पर पर्याप्त प्रभाव नहीं पड़ता तथा उसमें कठोरता, एकान्तवाद, हठाग्रह एवं असत्यता पाने की संभावना रहती है। ये सब अनिष्ट हैं / जिस साधक को सावद्य-निरवद्य का विवेक नहीं है, उसे बोलना भी उचित नहीं, उपदेश देना तो बहुत दूर है / वाणी का प्रयोग समिति है, जो सावद्य-निरवद्य के विवेक से युक्त होती है / इसलिए साधक को कब, कहाँ, कितना और कैसा वचन बोलना चाहिए? बोलने से पहले और बोलते समय कितनी सूक्ष्म बुद्धि से काम लेना चाहिए ?, यह प्रस्तुत अध्ययन में विस्तृतरूप से बताया गया है / वस्तु के यथार्थ स्वरूप को व्यक्त करने वाली भाषा तथ्य हो सकती है, किन्तु वह सत्य हो भी सकती है, नहीं भी / जिस वधकारक या परपीड़ाकारी भाषा से कर्मपरमाणुओं का प्रवाह पाए, वह बाहर से सत्य प्रतीत होने पर भी प्रवक्तव्य है, एक तरह से वह असत्यसम है। अत: प्रस्तुत अध्ययन में सत्य-असत्य के विवेक के साथ-साथ वक्तव्य-प्रवक्तव्य का भी विवेक बताया गया है। * यद्यपि भाषा के प्रकारों का विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना एवं स्थानांग में किया गया है; तथापि यहाँ संक्षेप में चार प्रकार की भाषाओं में से असत्या और सत्या-मृषा (मिश्र) भाषा का प्रयोग निषिद्ध बताया गया है, क्योंकि इन दोनों प्रकार की भाषाओं का प्रयोग सावध होता है; तथा सत्या और असत्याऽमृषा (व्यवहार भाषा) के प्रयोग का विधान-निषेध दोनों हैं; क्योंकि सत्य और व्यवहार भाषा सावध और निरवद्य दोनों प्रकार की हो सकती है। साधु को निरवद्य भाषा ही बोलना है, सावद्य नहीं / * इस अध्ययन के अन्तर्गत द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, पात्र, परिस्थिति की कसौटी पर कस कर निरवद्य वचन का विधान और सावध का निषेध किया है। * अन्त में, उपसंहार में सुवाक्यशुद्धि के अनन्तर एवं परम्पर फल का वर्णन किया गया है / / 8. ज बक्कं वयमाणस्स संजमो सुझइ न पुण हिंसा / न य अत्तकलुसभावो, तेण इहं दक्कसुद्धित्ति // -दश. नियुक्ति 288 5. दशवं. (संतबाल जी) प्रस्तावना पृ. 88 / 6. (क) सावज्जण-व जाणं, वयणाणं जो न याणइ विसेसं / वोत्तु पि तस्स ण खमं, किमंग पुण देसणं काउं? // हारि. टीका, पृ. 2-7 7. दशवे. (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) अ. 7 / 11, 12, 13 8. (क) प्रजापना पद 11, स्थानांग, स्थान-१०, (ख) दशवै. (मू. पा. टि.), गा. 1-2-3 9. वही, मा.५५, 56, 57 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org