________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] [215 रुक्खस्स तणगस्स वा : स्पष्टीकरण-तणगस्स' को पृथक् पद मानने से 'तृण का' ऐसा अर्थ होता है, किन्तु तण (तिनके या घास) के कोई नये पत्ते नहीं पाते, इसलिए 'तणगस्स' शब्द रुक्खस्स का विशेषण ही संगत प्रतीत होता है। अगस्त्यचूणि एवं हारिभद्रीया वृत्ति में इसका अर्थमधुर तृणादि किया है / मधुर तृणक 'मधुर तृणद्र म' का पर्यायवाची प्रतीत होता है। तदनुसार नारियल, ताल, खजूर, केतक और छुहारे आदि मधुर फलों के वृक्ष को मधुर तणद् म कहा जा सकता है / इसके नये पत्ते (कोपल) ग्रहण करने का निषेध है।८ तरुण वा पवालं-नया (ताजा) पत्ता या कोंपल ; जिसे संस्कृत में 'प्रवाल' कहते हैं / प्रामियं तरुणियं सई भज्जियं छिवाडि : सचित्त प्रचित्त का स्पष्टीकरण-छिवाडि का अर्थ-- मूग आदि की फली या सींगा है। ताजी कच्ची (मूग, मोठ, चौला आदि की) एक बार भुनी हुई फली एक बार के अग्निसंस्कार से पूर्णतया पक्व नहीं होती, कुछ कच्ची-कुछ पक्की मिश्रित रहती है / इसलिए ऐसी अपक्व फली को लेने का निषेध है, किन्तु वे हरी फलियाँ दो-तीन बार भुनी हुई हों, तो लेने का निषेध नहीं है। कोलमणुस्सिन्नं० आदि पदों के अर्थ का स्पष्टीकरण--कोलमणुस्सिन्नं—जो उबाला हुआ न हो, वह बेर का फल / वेलुअं-वंशकरिल्ल-बांस का अंकुर / बेलुयं का 'बिल्व' अर्थ संगत नहीं, क्योंकि वेलुयं का संस्कृत रूपान्तर 'वेणुक' तो हो सकता है, बिल्वं नहीं। बिल्व का प्राकृत में 'बिल्लं' रूप होता है, जिसका प्रथम उद्देशक में उल्लेख हो चुका है। कासव-नालियं : दो अर्थ-(१) -अर्थात् श्रीपर्णी फल या कसारु (जलीय कन्द) जो घास का कन्द है, जिसका फल पीले रंग का और गोल होता है / तिलपप्पडिगं-तिलपर्पटक, वह तिलपपड़ी जो कच्चे तिलों से बनी हो / नोमं : नीप-कदम्बफल / नीम का अर्थ भ्रान्तिवश नीम का फल (निम्बोली) करना उचित नहीं; क्योंकि संस्कृत में 'निम्ब' शब्द नीम के लिए प्रयुक्त होता है / 20 चाउलं पिट्टप्रादि शब्दों का प्रर्थ और स्पष्टीकरण-चाउलं पिट्ठ : दो अर्थ-(१) अभिनव (तत्काल के) और अनिधन (बिना पकाये हुए) चावलों का (उपलक्षण से गेहूँ आदि अन्य अनाजों का) 18. (क) तृणस्य वा मधुरतृणादेः। --हा. वृ., पत्र 185 (ख) तणस्स जहा-अज्जगमूलादीणं / --जि. चू., पृ. 197 (ग) तरुणिया नाम कोमलिया। -जि. च., पृ. 197 (घ) तरुणां वा असंजाताम् / -हा. टी., पत्र 185 19. (क) नीम-नीवफलं-कदम्बफलं। -अ. च., पृ. 130 (ख) नीम-नीमरुक्खस्स फलं / --जि.चु., पृ. 198 (ग) दसवेयालियं (मुनि नथमलजी), पृ. 281 20. (क) दसवेयालियं (मुनि. नथ.) पृ. 268 (ख) कासवनालिअं-सीवणीफल कस्सारुकं। -प्र.चु., पृ. 130 (ग) तिलपप्पडगो-जो आमगेहिं तिलेहि कीरइ, तमवि प्रामगं परिवज्जेज्जा। -जि. च., पृ. 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org