________________ 242] विशवकालिकसूत्र [24] यथावद्वस्तुतत्त्वज्ञ (बुद्ध साधु-साध्वी) (वस्त्रपात्रादि) सर्व उपधि (सभी देश-काल में उचित उपकरण) का संरक्षण करने (रखने) और उन्हें ग्रहण (धारण) करने में ममत्वभाव का प्राचरण नहीं करते, इतना ही नहीं, वे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं करते / / 21 / / विवेचन-संग्रह, परिग्रह और अपरिग्रह का स्पष्टीकरण---प्रस्तुत पांच सूत्रगाथाओं (280 से 284 तक) में संग्रह का निषेध, उपकरणादि वस्तु के अपरिग्रहत्व की तथा अपरिग्रहवृत्ति की चर्चा की गई है। . सन्निहि आदि पदों का अर्थ--सन्निधि और संचय-लवण आदि जो द्रव्य चिरकाल तक रखे जा सकते हैं, उन्हें अविनाशी द्रव्य तथा दूध, दही आदि जो द्रव्य अल्पकाल तक ही टिके रह सकते हैं, उन्हें विनाशी द्रव्य कहते हैं। यहाँ अविनाशी द्रव्यों के संग्रह को 'सन्निधि' कहा गया है / निशीथचूणि में अविनाशी द्रव्य के संग्रह को 'संचय' और विनाशी द्रव्य के संग्रह को 'सन्निधि' कहा गया है। जो भी हो, लवण आदि वस्तुओं का संग्रह करना, उन्हें अपने पास रखना अथवा रात को बासी रखना 'सन्निधि' है, जो कि ममत्वभाव से रखे जाने के कारण परिग्रह है / 25 विडं : लक्षण-गोमूत्र आदि में पकाकर जो कृत्रिम नमक तैयार किया जाता है, वह प्रासुक नमक विडलवण कहलाता है। उन्भेइमं लोणं-उद्भिज लवण, जो खान में से निकलता है, अथवा समुद्र के खारे पानी से बनाया जाता है / यह अप्रासुक है / फाणियं : फाणित-इक्षुरस को पकाने के बाद जो गाढ़ा द्रव गुड़ (काकब) होता है, उसे फाणित कहते हैं। लोहस्सेस अणुफासे—यह सन्निधि या संचय लोभ का ही अनुस्पर्श है, चेप है / लोभ का चेप एक बार लगने पर फिर छूटता नहीं है / अथवा अनुस्पर्श का अर्थ-प्रभाव, सामर्थ्य या माहात्म्य भी होता है / लोभ के प्रभाव से परिग्रहवृत्ति और संग्रहप्रवृत्ति बढ़ती जाती है / 26 25. (क) “सन्निहीं णाम दधिखीरादि जं विणासि दवं, जं पुण घय-तेल्ल-वन्थ-पत्त-गुल-खंड-सक्कराइयं अविणासि दवं, चिरमवि अच्छइ, ण विणस्सइ सो संचतो।" ---निशीथ. उ. 8, सू. 17 चणि (ख) एताणि अविणासिव्वाणि न कप्पंति, किमंग पूण रसादीणि विणासिव्वाणि ? एवमादि सणिधि न ते साधवो भगवंतो णायपुत्तस्स बयणे रया इच्छंति। -जि. च., 220 (ग) 'सन्निधि कुर्वन्ति–पयं षितं स्थापयन्ति / ' -हारि. वत्ति, पत्र 198 / 26. (क) विलं (ड) गोमुत्तादीहिं पचिऊण कित्तिमं कीरइ,"अहवा बिलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहणं कयं / -जि. चू., पृ. 220 (ख) उभेइमं–सामुद्दोति लवणागरेसु वा समुप्पज्जति तं अफासुगं। -अगस्त्यचूणि, पृ. 146 (ग) फाणितं द्रवगुडः। -हारि. वृत्ति, पत्र 198 (घ) 'अणुफासो नाम अणुभावो भण्णति / ' --जिन. चूणि, पृ. 220 (3) यः स्यात् यः कदाचित् / --हारि. टीका, प. 198 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org