________________ 258] [दशवकालिक सूत्र मांग कर अपनी थकान मिटाने या विश्राम लेने हेतु थोड़ी देर तक विवेकपूर्वक बैठ सकता है। यह अपवाद मार्ग है / इसका एक या दूसरे प्रकार से लाभ लेकर कोई अनर्थ न कर बैठे, इसलिए प्रत्येक स्थिति में विवेक करना अनिवार्य है।४८ सत्तरहवां प्राचारस्थान : स्नानवर्जन 323. वाहिओ वा अरोगी वा सिणाणं जो उ पत्थए / बोक्कतो होइ पायारो, जढो हवइ संजमो // 60 // 324. संतिमे सुहमा पाणा घसासु भिलुगासु* य / ___ जे उ मिक्खू सिणायंतो,+ वियडेणुप्पिलावए // 61 // 325. तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा / जावज्जीवं वयं घोरं असिणाणमहिट्ठगा // 62 // [323] रोगी हो या नीरोग, जो साधु (या साध्वी) स्नान करने की इच्छा करता है, उसके प्राचार का अतिक्रमण (उल्लंघन) हो जाता है; उसका संयम भी त्यक्त (शून्यरूप) हो जाता है / / 60 // [324] यह तो प्रत्यक्ष है कि पोली भूमि में और भूमि की दरारों में सूक्ष्म प्राणी होते हैं / प्रासुक जल से भी स्नान करता हुआ भिक्षु उन्हें (जल से) प्लावित कर (-बहा) देता है / / 61 / / [325] इसलिए वे (संयमी साधु-साध्वी) शीतल या उष्ण जल से स्नान नहीं करते / वे जीवन भर धोर अस्नानवत पर दृढ़ता से टिके रहते हैं / / 62 / / विवेचन-स्नाननिषेध का हेतु ?–प्रस्तुत तीन गाथाओं (323 से 325 तक) में ब्रह्मचारी एवं संयमी साधु या साध्वी के स्नान करने में निम्नोक्त दोषों की सम्भावना बतलाई गई है -(1) प्राचार का उल्लंघन (साधु का यावज्जीवन आचार (नियम) है-अस्नान का, वह भंग होता है); (2) प्राणिरक्षणरूप संयम की विराधना, क्योंकि स्नान करता है तो पानी के बहने से अनेक सूक्ष्म त्रस प्राणियों की हिंसा होने की सम्भावना है। (3) पोली और दरार वाली भूमि में स्नान का बहता हुआ पानी घुस जाने से वहाँ पर रहे हुए अनेक सूक्ष्म जीवों की विराधना होती है / (4) प्रासुक या उष्ण जल से स्नान करने में भी यही पूर्वोक्त दोष है।४६ 48. (क) दशवकालिक (संतबालजी), पृ. 84 (ख) दसवेयालियसुतं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 45 (ग) जराए अभिभूयगाहणे णं अतिकट्ठपत्ताए जराए वज्जति / अत्तलाभियो बा अविकिट्ठतवस्सी वा एवमादि / —जिन. चूणि, पृ. 230-231 पाठान्तर - * भिलगासु / + जे अभिक्खू सिणायंति / 49. दशवै. (प्राचार्य श्री प्रात्मारामजी म.), पृ. 375 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org