________________ 254] [दशवकालिकसूत्र 315. पच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिया सत्थ न कप्पई। एयमटुं न भुजंति निग्गंथा गिहिमायणे // 52 // [313] (गृहस्थ के) कांसे के कटोरे (या प्याले) में, कांसे में बर्तन (या थाली) में अथवा कुडे के आकार वाले कांसे के बर्तन में जो साधु अशन, पान आदि खाता-पीता है, वह श्रमणाचार से परिभ्रष्ट हो जाता है / / 50 / / [314] (गृहस्थ के द्वारा) उन बर्तनों को सचित्त (शीत) जल से धोने में और बर्तनों के धोए हुए पानी को डालने में जो प्राणी निहत (हताहत) होते हैं, उसमें (तीर्थंकरों ने) असंयम देखा है / / 51 / / [315] (गृहस्थ के बर्तन में भोजन करने से) कदाचित् पश्चात्कर्म और पुरःकर्म (दोष) संभव है / (इस कारण वह निम्रन्थ के लिए) कल्पनीय नहीं है। इसी कारण वे गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं करते / / 52 // विवेचन-गृहस्थ के पात्र में भोजन कल्पनीय क्यों नहीं ? –गृहस्थ के कांसे आदि धातुओं के बर्तन में साधु को भोजन करना या पेयपदार्थ पीना इसलिए कल्पनीय नहीं है कि गृहस्थ साधु-साध्वी को अपना बर्तन देने से पहले या लौटाने के पश्चात् उसे सचित्त जल से धो सकता है और फिर बर्तन का वह धोया हुआ पानी जहाँ-तहाँ अविवेक से डाल देगा। वहाँ उससे त्रसजीवों की उत्पत्ति और विराधना हो सकती है / ऐसा करने से पश्चात्कर्म और पुरःकर्म नामक एषणादोष लगना सम्भव है / अतएव गृहस्थ के बर्तन में आहार-पानी करने से श्रमणों को प्राचार से पतित और भ्रष्ट बताया है।४३ 'कसेसु' आदि पदों का अर्थ-कंसेसु : अनेक अर्थ-(१) कांसे का बना हुआ बर्तन (कांस्य), (2) क्रीडा-पान का बर्तन, (कंस), (3) थाल, खोरक (गोलाकार बर्तन), (4) कटोरा, गगरी जैसा बर्तन / कंसपाएसु : दो अर्थ-(१) कांसे के बर्तनों में या कांसे की थालियों में। कुडमोएसुकुण्डमोदेषु तीन अर्थ-(१) कच्छ आदि देशों में प्रचलित कुडे की प्राकृति जैसा कांस्यपात्र / (2) हाथी के पैर जैसी प्राकृति वाला बर्तन, (3) हाथी के पैर के आकार का मिट्टी आदि का भाजनकुण्डमोद है / सीओदगं-शीतोदक-सचित्त जल / छण्णंति-क्ष्णंति-हिंसा करता है। क्ष्णु धातु हिंसा करने के अर्थ में है।" 43. दशवैकालिकसूत्रम् (प्राचार्य श्री आत्मारामजी म.), पृ. 365-366 44. (क) कंसेसु-कंसस्स विकारो कांसं तेसु वट्टगातिसु लीलापाणेसु / -प्र. चू., पृ. 153 (ख) कुण्डमोदेषु हस्तिपादाकारेषु मृण्मयादिषु / —हारि. बृत्ति, पृ. 203 (ग) कुडमोयं कच्छातिसु कुडसंथियं कंसभायणमेव महंतं / -अगस्त्य चूणि, पृ. 153 (घ) 'सीतग्गहणेण सचेयणस्स उदगस्स गहणं कयं / ' -जिन, चूणि, पृ. 228 (ङ) छन्नतिक्ष्ण हिंसायामिति हिंसज्जंति। -अगस्त्य चणि, पृ. 153 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org