________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [245 287. उदोल्लं बीअसंसत्तं पाणा निव्वडिया महि / दिया ताई विवज्जेज्जा, रामो तत्थ कहं चरे ? // 24 // 288. एयं च दोसं दळूणं नायपुत्तण भासियं / सवाहार न भुजति, निग्गंथा राइभोयणं / / 25 // [285] ग्रहो ! समस्त तीर्थंकरों (बुद्धों) ने (देह-पालन के लिए) संयम (लज्जा) के अनुकल (सम) वृत्ति और एक बार भोजन (अथवा दिन में ही रागद्वेषरहित होकर पाहार करना); इस नित्य (दैनिक) ता.कर्म का उपदेश दिया है / / 22 / / 186] ये जो त्रम और स्थावर अतिसूक्ष्म प्राणी हैं, जिन्हें (साधुवर्ग) रात्रि में नहीं देख पाता, तब (आहार की) एपणा कैसे कर सकता है ? // 23 // 287] उदक से पाई (सचित्त जल से भीगा हुआ), बीजों से संसक्त (संस्पृष्ट) आहार को तथा पृथ्वी पर पड़े हुए प्राणियों को दिन में बचाया जा सकता है, (रात्रि में नहीं,) तब फिर रात्रि में निर्ग्रन्थ भिक्षाचर्या कैसे कर सकता है ? / / 24 / / [88] ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने इसी (हिंसात्मक) दोष को देख कर कहा-निर्ग्रन्थ (साधु या साध्वी) राबिभोजन नहीं करते। (वे रात्रि में) सब (चारों) प्रकार के आहार का सेवन नहीं करते // 25 // विवेचन-- रात्रिभोजननिषेध : क्यों ? –प्रस्तुत चार गाथाओं (285 से 288 तक) में रात्रिभोजनत्याग की सहज भूमिका, रात्रि में भिक्षाचरी एवं एषणाशुद्धि की दुष्करता तथा अहिंसा की दृष्टि से भगवान् महावीर द्वारा रात्रि में चतुर्विध-अाहार-परिभोग के सर्वथा निषेध का प्रतिपादन किया गया है। एकभक्त-भोजन : रात्रिभोजननिषेध का समर्थक-प्रस्तुत गाथा रात्रिभोजन-त्याग के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गई है, इसलिए एकभक्तभोजन का अर्थ दिवसभोजन माना जाए, या दिन में एक बार भोजन माना जाए? यह प्रश्न है। यहाँ इसे नित्य तपःकर्म (स्थायी तपश्चर्या) बताया गया है / चूर्णिकार और वृत्तिकार के मतानुसार दिवस में एक बार भोजन करना अथवा रागद्वेषरहित होकर एकाकी भोजन करना एकभक्त-भोजन है / मूलाचार में भी इसी का समर्थन मिलता है ---"सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़ कर मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहूर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, एक भक्त भोजन रूप मूल गुण है / " स्कन्दपुराण, मनुस्मृति और वशिष्ठस्मृति में भी एक बार भोजन का संन्यासियों के लिए विधान है। उत्तराध्ययनसूत्र में दिन के तृतीय पहर में भिक्षा और भोजन करने का विधान है। किन्तु आगमों के अन्य स्थलों के अध्ययन से प्रतीत होता है कि यह अम सब साधुओं के लिए या सभी स्थितियों में नहीं रहा। दशवैकालिक सूत्र के अष्टम अध्ययन की 28 वी गाथा से तो साधु-साध्वियों का भोजनकाल सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच का दिवस का कोई भी काल सिद्ध होता है। जो भी हो, एकभक्त-भोजन से अनायास ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org