________________ छठा अध्ययन : महाचारकथा] [241 पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन के दो ठोस उपाय --प्रस्तुत दो गाथाओं में अब्रह्मचर्य से बचने के लिए दो ठोस उपाय बनाए हैं. वे ही ब्रह्मचर्य सुरक्षा के उपाय हैं। पहला उपाय है --भेदायतनवर्जी--अर्यात् जो-जो बातें ब्रह्मचर्य या मंयम में विघातक हैं, जैसे कि स्त्री-पशु-नमक-संसक्त स्थान में रहना प्रादि, उनको वजित करे, उनसे दूर रहे श्रोर उनसे विपरीत नौ बाड़ से ब्रह्मचर्य की सर्वविध रक्षा करे और दुमरा ठोम उपाय है --मैथुन-संसर्ग-वर्जन / स्मरण, कीर्तन, क्रीडा, प्रेक्षण, एकान्तभाषण, संकल्प, अध्यवसाय प्रोर क्रियानिरूपत्ति, इन आठ प्रकार के मैथुनांगों का वर्जन करे, अब्रह्मचर्य जनक समस्त मंसर्गों से दूर रहे / 24 पंचम अाचारस्थान : अपरिग्रह (सर्वपरिग्रहविरमण) 280. विडमुडभेइमं लोणं तेल्लं सपि च फाणियं / न ते सन्निहिमिच्छंति नायपुत्तवओरया // 17 // 281. लोभस्सेसऽणुफासो मन्ने अन्नयरामवि / जे सिया सन्निही-कामे गिही, पवइए न से // 18 // 282. जंपि वत्थं व पायं वा कंबलं पायपुछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा धारेंति परिहरंति य // 19 // 283. न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा / 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो', इइ वुत्तं महेसिणा // 20 // 284. सव्वत्थ वहिणा बुद्धा संरक्षण-परिग्गहे / अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं / / 21 / / [280] जो ज्ञातपुत्र (भगवान महावीर) के वचनों में रत हैं, (वे साधु-साध्वी) विडलवण, सामुद्रिक (उद्भिज) लवण, तेल, घृत, द्रव गुड़ प्रादि पदार्थों का संग्रह करना नहीं चाहते / / 17 / / [281] यह (संग्रह) लोभ का ही विघ्नकारी अनुस्पर्श (प्रभाव) है, ऐसा मैं मानता हूँ / जो साधु (या साध्वी) कदाचित् यत्किचित् पदार्थ को सन्निधि (संग्रह) को कामना करता है, वह गृहस्थ है, प्रवजित नहीं है / / 18 / / [282] (मोक्षसाधक साधु-साध्वी) जो भी (कल्पनीय) वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण (पादपोंछन) (आदि धर्मापकरण) (रखते) हैं, उन्हें भी वे संयम और लज्जा की रक्षा के लिए ही रखते हैं और उनका उपयोग करते हैं / / 19 / / [283] समस्त जीवों के त्राता ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने (साधुवर्गद्वारा धर्मोपकरण के रूप में रखे एवं उपयोग किये जाने वाले) इस (वस्त्रादि उपकरण समुदाय) को परिग्रह नहीं कहा है। 'मूर्छा परिग्रह है',—ऐसा महर्षि (गणधरदेव) ने कहा है / / 20 // 24. दशवं. (प्राचार्य श्री प्रारमा रामजी म.), पृ. 331 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org