________________ 230] [दशवकालिकसूत्र * प्रस्तुत शास्त्र के तीसरे अध्ययन का नाम 'क्षुल्लकाचारकथा' है, जबकि इस (छठे) अध्ययन का दूसरा नाम 'महाचारकथा' है। इन दोनों में अन्तर यह है कि क्षुल्लकाचारकथा में साधुसाध्वियों के लिए अनाचरणीय (अनाचार-सम्बन्धी) विविध पहलुओं का उल्लेख है, जब कि इसमें उन्हीं का तथा कुछ अन्य का विधिनिषेधरूप में सहेतुक प्रतिपादन किया है / 'क्षुल्लकाचारकथा' की रचना निर्ग्रन्थ वर्ग के अनाचारों का संकलन करने के लिए हुई है, जब कि महाचारकथा की रचना मुमुक्षु महापुरुषों के प्राचार-विचार सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए हुई है। दोनों को निरूपणपद्धति में अन्तर है। क्षुल्लकाचारकथा में अनाचारों का सामान्यरूप से ही निर्देश किया गया है, जब कि महाचारकथा में यत्र-तत्र सकारण अनाचारवर्जन को तथा उत्सर्ग और अपवाद की परिचर्चा की गई है / उदाहरणार्थ-इस अध्ययन में एक ओर 18 ही अनाचारस्थान बाल, वृद्ध और रुग्ण सभी प्रकार के साधु-साध्वियों के लिए उत्सर्ग रूप से अनाचरणीय बताए हैं, वहाँ दूसरी ओर 'निषद्या' नामक 16 वें अनाचारस्थान के लिए अपवाद भी बताया है कि 'जराग्रस्त, रोगी और उग्रतपस्वी निर्ग्रन्थ के लिए गृहस्थ के घर में बैठना (निषद्या) कल्पनीय है। इस प्रकार इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद के अनेक संकेत मिलते हैं। * साधुजीवन में निवृत्ति, एकान्त निष्क्रियता का तथा धर्मसंघ, गुरु आदि से पृथक् स्वार्थजीविता का रूप न ले ले, इसके लिए 'वीर्याचार' (विधेयात्मक विनय, सेवा-शुश्रूषा, भिक्षाचरी, प्रतिलेखन, स्वाध्याय आदि में प्रवृत्ति) का सम्यक् विधान भी है। * मुमुक्षु निर्ग्रन्थों के लिए निम्नोक्त 18 अनाचारस्थानों का प्रस्तुत अध्ययन में परिभाषाओं तथा कारणों सहित प्रतिपादन किया गया है-व्रतषट्क (हिंसा, असत्य, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य, परिग्रह एवं रात्रिभोजन इन 6 का त्यागरूप व्रत), कायषटक (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन षड्जीवनिकायों का संयम), अकल्प (कुछ अकल्पनीय प्राचार), गृहिभाजन, पर्यक, निषद्या (गृहस्थ के घर में बैठना), स्नान और शोभावर्जन / / * प्रस्तुत अध्ययन में निर्ग्रन्थ वर्ग के लिए आचरणीय अहिंसा का आदर्श, सत्यभाषण से लाभ और असत्य के दुष्परिणाम, ब्रह्मचर्य के लाभ और अब्रह्मचर्य के दुष्फल, ब्रह्मचर्यपालन के उपाय, परिग्रह की वास्तविक परिभाषा, आसक्ति और मूर्छा का सयुक्तिक स्पष्टीकरण, प्रादि विषयों का समुचित रूप से समावेश किया गया है।" 3. (क) दसवेयालियसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 4-5, 39-40 (ख) दसवेयालिय. (मु. नथमलजी), पृ. 293 4. वयछक्कं कायछक्कं प्रकप्पो गिहिभायणं / पलियंक-निसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं॥' -नियुक्ति गा. 268, समवायांग 18 वां समवाय 5. दशवै. (संतबालजी), पृ. 71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org