________________ छ? : धम्मऽत्थकामऽज्झयणं (महायारकथा) छठा : धर्मार्थकामाऽध्ययन (महाचारकथा) राजा आदि द्वारा निर्ग्रन्थों के प्राचार के विषय में जिज्ञासा 264. नाण-दसणसंपन्नं संजमे य तवे रयं / गणिमागमसंपन्नं उज्जाणम्मि समोसढं // 1 // 265. रायाणो रायमच्चा य माहणा अदुव खत्तिया / पुच्छति निहुयऽप्पाणो, कहं भे पायारगोयरो? // 2 // [264-265] ज्ञान और दर्शन से सम्पन्न, संयम और तप में रत, पागम-सम्पदा से युक्त गणिवर्य (प्राचार्य) को उद्यान में समवसृत (विराजित) (देखकर) राजा और राजमंत्री, ब्राह्मण (माहन) और क्षत्रिय निश्चलारमा (शान्तमनस्क) होकर पूछते हैं हे भगवन् ! आप (निर्ग्रन्थश्रमणवर्ग) का आचार-गोचर कैसा है ? / / 1-2 / / विवेचन राजा आदि को जिज्ञासा का सूत्रपात-प्रस्तुत अध्ययन का प्रारम्भ राजा आदि की जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है / वृद्धपरम्परा से जिज्ञासा का सूत्रपात इस प्रकार हुमा-भिक्षाविशुद्धि का ज्ञाता कोई साधु नगर में भिक्षार्थ गया। मार्ग में राजा, राजमंत्री, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि कुछ जिज्ञासु सज्जन मिले। उन्होंने साधु से पूछा-अाप श्रमणों का प्राचार-विचार कैसा है ? हमें आपके आचार-विचार जानने की अतीव उत्कण्ठा है। साधु ने शान्तभाव से उत्तर दिया-मैं इस समय भिक्षाटन कर रहा हूँ, इसलिए नियमानुसार आपके प्रश्न का समुचित एवं विस्तृत रूप से उत्तर नहीं दे सकता। अतः आप अमुक उद्यान में विराजमान हमारे गणिवर्य से अपने प्रश्न का समाधान प्राप्त कर लें। वे ज्ञानदर्शन-सम्पन्न संयमी एवं पूर्ण अनुभवी प्राचार्य हैं। उनसे आपको अपने प्रश्न का यथोचित उत्तर अवश्य मिलेगा। इस प्रकार कहने पर वे राजादि सब गणिवर्य के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा जिस रूप में प्रस्तुत की उसका दिग्दर्शन प्रस्तुत दो गाथाओं में है।' गणि की गुणसम्पन्नता : व्याख्या प्रस्तुत गाथा में गणि के कुछ सार्थक विशेषण अंकित हैं, उनकी व्याख्या क्रमशः इस प्रकार है-ज्ञानसम्पन्न ज्ञान के पांच प्रकार हैं। प्राचार्यश्री की ज्ञानसम्पन्नता के चार विकल्प हो सकते हैं--(१) मति और श्रुत, इन दो ज्ञानों से युक्त, (2) मति, श्रुत और अवधि अथवा मति, श्रुत और मनःपर्याय इन तीन ज्ञानों से सम्पन्न, (3) मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्याय, इन चार ज्ञानों से सम्पन्न, (4) एकमात्र केवलज्ञान से सम्पन्न / 1. दशवं. (आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज), पृ. 309-310 --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org