________________ पंचम अध्ययन : पिण्डषणा] |221 स्वादलोलुप और मायावी साधु की दुर्वृत्ति का चित्रण और दुष्परिणाम 244. सिया एगइओ लद्ध, लोभेण विणिगृहइ।। मा मेयं दाइयं संतं दट्टणं सयमायए / / 31 // 245. अत्तट्ट गुरुप्रो लुद्धो, बहुं पावं पकुम्बई। दुत्तोसो य से होइ, निव्वाणं च न गच्छई / / 32 / / 226. सिया एगइओ लद्ध, विविहं पाण-भोयणं / भद्दगं भद्दगं भोच्चा, विवण्णं विरसमाहरे / / 33 / / 247. जाणंतु ता इमे समणा आययट्ठी अयं मुणो / संतुट्ठो सेवई पंतं, लूहवित्ती सुतोसो।। 34 // 248. पूयणट्ठी जसोकामी माण-सम्माणकामए / बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वइ / / 35 / / [244-245] कदाचित् कोई एक (अकेला साधु सरस आहार) प्राप्त करके इस लोभ से छिपा लेता है कि मुझे मिला हुआ यह प्राहार गुरु को दिखाया गया तो वे देख कर स्वयं ले लें, मुझे न दें; (परन्तु) ऐसा अपने स्वार्थ को ही बड़ा (सर्वोपरि) मानने वाला स्वादलोलुप (साधु) बहुत पाप करता है और वह सन्तोष भाव से रहित हो जाता है। (ऐसा साधु) निर्वाण को नहीं प्राप्त कर पाता / / 31-32 // [246-247] कदाचित् कोई एक साधु विविध प्रकार के पान और भोजन (भिक्षा में) प्राप्त कर (उसमें से) अच्छा-अच्छा (सरस पदार्थ कहीं एकान्त में बैठ कर) खा जाता है और विवर्ण (वर्ण रहित) एवं नीरस (तुच्छ भोजन-पान) को (स्थान पर) ले आता है। (इस विचार से कि) ये श्रमण जानें कि यह मुनि बड़ा मोक्षार्थी है, सन्तुष्ट है, प्रान्त (सार-रहित) आहार सेवन करता है, रूक्षवृत्ति एवं जैसे तैसे आहार से सन्तोष करने वाला है // 33-34 / / [248] ऐसा पूजार्थी, यश-कीति पाने का अभिलाषी तथा मान-सम्मान की कामना करने वाला साधु बहुत पापकर्मों का उपार्जन करता है और मायाशल्य का आचरण करता है / / 3 / / विवेचन-आहार के परिभोग में मायाचार सम्बन्धी परिचर्चा-प्रस्तुत 5 सूत्र गाथाओं (244 से 248 तक) में स्वार्थी, स्वादलोलुप एवं मायाचारी साधु की मनोवृत्ति का चित्रण प्रस्तुत किया गया है। दो प्रकार को मायाचार-प्रवृत्ति-(१) भिक्षाप्राप्त सरस आहार को गुरु से छिपा कर सारा का सारा आहार स्वयं सेवन करने की प्रवृत्ति, (2) दूसरी, सरस श्रेष्ठ आहार को एकान्त में सेवन करके उपाश्रय में नीरस आहार लाना है। दोनों में से प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति वाला साधु निजी पाठान्तर / अनठा-गुरुयो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org